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________________ कर्मप्रकृति अनुसार) उ-तथा, जहन्नं-जघन्य, अजहन्नुक्कोसं-अजघन्य (मध्यम) और उत्कृष्ट, इयरासि-इतर (अशुभ) में। . गाथार्थ--सर्व विशद्ध मध्यम परिणामी और संक्लिष्टतर परिणाम वाले जीव क्रमशः परावर्तमान शुभ प्रकृतियों का चतुःस्थानिक, विस्थानिक और विस्थानिक तथा परावर्तमान अशभ प्रकृतियों का द्वि, त्रि और चतुःस्थानिक रस बांधते हैं तथा जो अति विशुद्ध परिणामी शुभ प्रकृतियों का चतुःस्थानिक रस बांधते हैं, वे ध्रुव प्रकृतियों की जघन्य स्थिति बांधते हैं। विस्थानिक रस बांधते हुए मध्यम स्थिति और द्विस्थानिक रस बांधते हुए उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं तथा स्वविशद्धि के अनुसार परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों का द्वि, त्रि और चतुःस्थानिक रस बांधने पर ध्रुवबंधिनी प्रकृति की अनुक्रम से जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं । विशषार्थ--जो सर्व विशद्ध जीव हैं, वे परावर्तमान शुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानगत रस को बांधते हैं। जो मध्यम परिणाम वाले जीव हैं, वे त्रिस्थानगत रस को बांधते हैं और जो संलिष्टतर परिणाम वाले जीव हैं, वे द्विस्थानगत रस को बांधते हैं और तद्योग्य भूमिका के अनुसार जो सर्व विशुद्ध जीव हैं, वे पुनः परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों को बांधते हैं, तो वे उन प्रकृतियों के द्विस्थानगत रस को उत्पन्न करते हैं । मध्यम परिणाम वाले त्रिस्थानगत रस को और संक्लिष्टतर परिणाम वाले चतुःस्थानगत रस को बांधते हैं । .. . ..अब स्थितिबंध की अपेक्षा इनका विचार करते हैं कि-'धुवपगडीत्यादि' अर्थात् जो सर्वविशुद्ध जीव हैं, वे शुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानगत रस को बांधते हैं, वे ध्रुव प्रकृतियों की जघन्य स्थिति को बांधते हैं । यहाँ पर 'तिट्ठाणे' यह षष्ठी विभक्ति के अर्थ में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग है । अतः परावर्तमान शुभ प्रकृतियों के त्रिस्थानगत रस के बंधक जो जीव है, वे ध्रुव प्रकृतियों की अजघन्य अर्थात् मध्यम स्थिति को बांधते हैं और जो द्विस्थानगत रस के बंधक जीव हैं, वे ध्रुव प्रकृतियों की ज्येष्ठ अर्थात् उत्कृष्ट स्थिति को बांधते हैं तथा जो इतर अर्थात परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों के द्विस्थानगत रस को बांधते हैं, वे ध्रुव प्रकृतियों की जघन्य स्थिति को स्व-स्थान में अपनी विशुद्धि की भूमिका के अनुसार' बांधते हैं अर्थात् परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों के द्विस्थानगत रसबंध की कारणभूत विशुद्धि के अनुसार जघन्य स्थिति को बांधते हैं किन्तु अति जघन्य स्थिति को नहीं बांधते हैं। ध्रुवप्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध एकान्तविशुद्धि में ही सम्भव है। किन्तु उस समय परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों का बंध सम्भव नहीं है और जो पुनः परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों के त्रिस्थानगत रस के बंधक जीव हैं, वे ध्रव प्रकृतियों की अजघन्य स्थिति को बांधते हैं तथा जो परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानगत रस को बांधते हैं, वे ध्रुव प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को उत्पन्न करते हैं । १. इसका आशय यह है कि जिस जीव को जिस प्रकार की स्वयोग्य उत्कृष्ट विशुद्धि हो सकती है, तदनुसार।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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