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________________ बंधनकरण पल्लासंखियभागं गतुं दुगुणाणि जाव उक्कोसा । नाणंतराणि अंगुल - मूलच्छेयणमसंखतमो ॥ ८८ ॥ १९१ शब्दार्थ –पल्लासंखियभागं - पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण, गंतुं अतिक्रमण करने पर, गुणाणि द्विगुणवृद्धिस्थान, जाव - पर्यन्त, उक्कोसा- उत्कृष्ट, नाणंतराणि - नाना अन्तर ( द्विगुणवृद्धिस्थान ), अंगुल अंगुल के, मूलच्छेयणं - वर्गमूल के अर्धच्छेद के, असंखतमो - असंख्यातवें भाग प्रमाण । गाथार्थ -- जघन्य स्थितिस्थान से पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियों का उल्लंघन करने पर द्विगुणवृद्धिस्थान प्राप्त होता है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त जानना चाहिये । इस प्रकार के नाना अंतर- द्विगुणवृद्धिस्थान अंगुल के वर्गमूल के अर्धच्छेदों के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं । विशेषार्थ - आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की जघन्य स्थिति में जितने अध्यवसायस्थान होते हैं, उनसे पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियों का उल्लंघन करने पर दूसरे - अनन्तर स्थितिस्थान में अध्यवसायस्थान दुगुने होते हैं। उनसे भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिस्थानों का उल्लंघन करने पर प्राप्त अनन्तरवर्ती स्थितिस्थानों में अध्यवसायस्थान दुगुने होते हैं । इस प्रकार यह द्विगुणवृद्धि तव तक कहना चाहिए, जब तक कि उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है। एक द्विगुणवृद्धि के अन्तराल में स्थिति के स्थान पल्योपम के वर्गमूल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं और नाना द्विगुणवृद्धिस्थान अंगुलवर्गमूल के छेदनक के असंख्यतम भाग प्रमाण होते हैं । इस कथन अभय यह है कि अंगुल प्रमाण क्षेत्रगत प्रदेशराशि का जो प्रथम वर्गमूल है, वह मनुष्यों की राशि प्रमाण लाने की' कारणभूत छियानवे (९६) की राशि की छेदनविधि से (भागविधि, भागाकार करने की रीति से) तब तक छेदन किया जाता है, जब तक कि उसका दूसरा भाग नहीं होता है । उन छेदनकों के असंख्यातवें भाग में जितने छेदनक होते हैं, उतने में जितने आकाशप्रदेशों की राशि होती है, उतने प्रमाण नाना द्विगुण ( वृद्धि ) स्थान होते हैं । " इस प्रकार प्रगणना का कथन जानना चाहिये । अनुकृष्टिविचार अब अनुकृष्टि का विचार करते हैं। वह यहाँ नहीं होती है । जिसका कारण यह है कि ज्ञानावरणकर्म के जघन्य स्थितिबंध में जो अध्यवसायस्थान कारणभूत होते हैं, उनसे द्वितीय स्थिति१. मनुष्य की संख्या लाने के लिये २ के अंक का ९६ बार गुणाकार करने से मनुष्य की संख्या प्राप्त होती है । जैसे २x२x२x२x२x२ इस प्रकार ९६ बार दो के अंकों को लिखकर गुणाकार करने पर २९ अंक रूप मनुष्यसंख्या प्राप्त होती है । इसलिये यहाँ ९६ अंक को मनुष्यसंख्या का हेतु कहा हैं । २. असत्कल्पना से ९२१६०००००००००० के वर्गमूल ९६००००० को ९६ से भाग देने पर १०००००, उसका असंख्यात रूप १०० से भाग देने पर २००० द्विगुणवृद्धिस्थान होते हैं ।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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