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________________ १८२ कर्मप्रकृति इस प्रकार विशेषहीन- विशेषहीन निक्षेप करने का क्रम तब तक कहना चाहिये, जब तक उस समय में बांधे जाने वाले कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का चरम समय प्राप्त होता है । ' इस प्रकार अनन्तरोपनिघा की प्ररूपणा जानना चाहिये । अब परंपरोपनिधाप्ररूपणा करते हैंपल्लसंखिय भागं, गंतुं दुगु णमेवमुक्कोसा । नाणंतराणि पल्लस्स, मूलभागो असंखतमो ॥ ८४ ॥ शब्दार्थ -- पल्लासंखिय भागं - पल्योपम के असंख्यातवें भाग, गंतुं - अतिक्रमण करने पर, बुगुणं - द्विगुणहीन, एवं - इस प्रकार, उक्कोसा - उत्कृष्ट स्थिति, नाणंतराणि - नाना अन्तर जानना, पल्लस्स. पल्योपम के, मूलभागो - वर्गमूल के असंखतमो - असंख्यातवें भाग प्रमाण । गाथार्थ -- पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियों का अतिक्रमण करने पर द्विगुणहानिस्थान तथा नाना अंतर पल्योपम के वर्गमूल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं । विशेषार्थ --- अबाधाकाल से ऊपर प्रथम स्थिति में जो कर्मदलिक निषक्त- निक्षिप्त किये जाते हैं, उनकी अपेक्षा समय-समय रूप द्वितीय, तृतीय आदि स्थितियों में विशेषहीन - विशेषहीन दलिकों का निक्षेपण करते हुए पत्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियों के अतिक्रान्त हो जाने पर निक्षिप्यमाण दलिक 'दुगुणूणं' द्विगुणहीन अर्थात् आधे हो जाते हैं । तत्पश्चात् इससे भी ऊपर उक्त स्थान की अपेक्षा विशेषहीन, विशेषहीनतर निक्षिप्यमाण दलिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियों के अतिक्रान्त होने पर आधे हो जाते हैं। इस प्रकार अर्ध- अर्ध हानि से तब तक कहना चाहिये, जब तक उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है । अर्थात् स्थिति का चरम समय आता है। इस प्रकार ये द्विगुणहानि वाले स्थान कितने होते हैं ? इसको बतलाने के लिये कहा है'नाणतराणि पल्लस' अर्थात् नाना प्रकार के जो अन्तर यानी अन्तर - अन्तर से द्विगुणहानि के स्थान उत्कृष्ट स्थितिबंध में पल्योपम सम्बन्धी प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने समय प्रमाण होते हैं । कहा भी है- १. उक्त कथन का आशय यह है कि अबाधाकाल समाप्त होने के अनन्तर पहले समय में कर्मदलिकों का निषेक किया जाता है, उनका प्रमाण अधिक होता है, दूसरे समय में उससे कम । इसी प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक बद्ध वःमंदलिकों की स्थिति पूर्ण होती है। इसको असत्कल्पना से इस प्रकार समझा जा सकता हैजैसे २५ समय स्थितिबंध वाले कर्म के १०५० परमाणु बंधे हैं । उनका पांच समय का अबाधाकाल है । काल बीतने के बाद पहले समय में अर्थात् छट्ठे समय में १००, सातवें समय में ९५, आठवें समय में ९०, इस प्रकार यावत् पच्चीसवें समय में ५ पांच परमाणु उदय में आकर वह कर्म निःसत्ताक होता है । २. उक्त कथन का आशय यह है कि उत्कृष्ट स्थितिबंध तक अथवा उसके अन्त्य समय तक में पल्योपम के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग के समय जितने द्विगुणहानि स्थान होते हैं । जैसे कि २० कोडाको सागरोपम, ७० कोडाकोडी सागरोपम इत्यादि जिस कर्म का जो उत्कृष्ट स्थितिबंध है, उस उत्कृष्ट स्थितिबंध में पूर्वोक्त प्रमाण वाली हानि होती है, परन्तु जघन्य स्थितिबंध अथवा कितने ही मध्यम स्थितिबंध में पूर्वोक्त प्रमाण वाली हानियां संभव नहीं हैं ।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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