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________________ १७५ वैक्रियषट्क अर्थात् देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियशरीर, वैक्रियअंगोपांग की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन और सहस्रगुणित २/७ सागरोपम जघन्य स्थिति होती है । क्योंकि इस वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति का बंध करने वाले असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव होते हैं और वे ही उक्त प्रमाण वाली जघन्य स्थिति को बांधते हैं, जैसा कि कहा है- बंधनकरण asoorछक्के तं सहस्सताडियं जं असण्णिणो तेसि । पलियासंखं सू ठिइ अबाहूणियनिगो || ' इसका अर्थ यह है कि वर्गोत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने रूप गणित के इस करणसूत्र से जो २/७ लब्ध होता है, उसे सहस्रताड़ित अर्थात् एक हजार ( १०००) से गुणा करके फिर उसे पल्योपम के असंख्यातवें अंश अर्थात् भाग से कम करें तब जो प्रमाण होता है, वह उक्त स्वरूप वाले वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति का प्रमाण जानना चाहिये | ऐसा क्यों ? तो इसका उत्तर यह है कि जिस कारण से इन वैक्रियषट्क लक्षण वाले कर्मों की असंज्ञी पंचेन्द्रिय ही जघन्य स्थिति का बंध करते हैं और वे इतनी ही जघन्य स्थिति को बांधते हैं, इससे कम नहीं बांधते हैं । उक्त कर्मों का अवधाकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और अवाधाकाल से हीन जो कर्मस्थिति है, तत्प्रमाण कर्मदलिकनिषेक होता है ।" एकेन्द्रियादि जीवों की जघन्य, उत्कृष्ट स्थिति व स्थितिबंध का अल्पबहुत्व एसेगिदियडहरो, सव्वासि ऊणसंजुओ जेट्ठो । पणवीसा पन्नासा, सयं सहस्सं च गुणकारो ॥८०॥ कमसो विगल असनीण, पल्लसंखेज्जभागहा इयरो । विरए देसजइदुगे सम्म उक्के य संखगुणो ॥ ८१ ॥ सन्नीपज्जत्तियरे, अब्भितरओ य कोडिकोडीओ । सम्झिएस, होई पज्जत्तगस्सेव ॥८२॥ ओघुक्कसो शब्दार्थ - - एस -- यह पूर्वक्ति, एगिदियडहरो - एकेन्द्रिय का जघन्य, सव्वासि - सर्व प्रकृतियों का, ऊ संजुओ-न्यून की स्थिति संयुक्त करने से, जेट्ठी- उत्कृष्ट, पणवीसा - पच्चीस, पन्नासा-पचास, सयंसौ, सहस्सं - हजार, च और गुणकारो - गुणाकारं । कमसो- क्रमशः, विगल असनीण - विकलेन्द्रिय और असंज्ञी का, पल्लसंखेज्जभागहा - पल्योपम के संख्यातवें भागहीन, इयरो - इतर ( जघन्य ), विरए - सर्वविरत का, देसजइदुगे - देशविरतद्विक का, सम्मचउक्के – सम्यक्त्व चतुष्क का य-और, संखगुणो-संख्यात गुण । १. पंचसंग्रह, पंचमद्वार गा० ४९ २. सरलता से सारांश समझने के लिये मूल एवं उत्तर प्रकृतियों के स्थितिबंध और उनकी अबाधा का प्रारूप परिशिष्ट में देखिये ।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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