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________________ १७० कर्मप्रकृति दोमासा-दो मास, अद्धद्धं-अर्ध-अर्थ, संजलणे-संज्वलनत्रिक की, पुरिस-पुरुषवेद, अद्ववासाणिआठ वर्ष की, भिन्नमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त, अबाहा-अवाधा, सव्वासिं-सर्व प्रकृतियों की, सहि-समस्त, हस्से-जघन्य स्थितिबंध में। ___ गाथार्थ--ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अंतिम (संज्वलन) लोभ की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है तथा सातावेदनीय की बारह महुर्त एवं यशःकीति और उच्चगोत्र की आठ मुहूर्त है। संज्वलन क्रोध को दो मास और शेष मान, माया की अर्ध-अर्ध न्यून और पुरुषवेद की आठ वर्ष की जघन्य स्थिति है और सर्व प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध में अबाधा अन्तर्मुहूर्त है। __विशेषार्थ-भिन्नमुहुत्तं . . . .'अर्थात् पांचों ज्ञानावरण, पांचों अन्तराय, चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल इन चारों दर्शनावरण और सबसे अंतिम लोभ अर्थात् संज्वलन लोभ की जघन्य स्थिति भिन्नमुहूर्त अर्थात् अन्तर्मुहूर्त होती है । इनका अबाधाकाल भी अन्तर्मुहूर्त है । अबाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक है। सातावेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है' और अन्तर्मुहूर्त अबाधाकाल है एवं अवाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है । यहाँ पर कषाययुक्त सातावेदनीय की जघन्य स्थिति का प्रतिपादन अभीष्ट है । इसलिये बारह मुहूर्त जघन्य स्थिति कही है। अन्यथा तो सातावेदनीय की जघन्य स्थिति सयोगिकेवली आदि में दो समय प्रमाण भी पाई जाती है । ___ यशःकीति और उच्चगोत्र की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है । अवाधाकाल अन्तर्मुहूर्त है और अबाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है। संज्वलन कषायों की जघन्य स्थिति दो मास और इसके बाद अर्ध-अर्ध होती है । इस कथन का तात्पर्य यह है कि संज्वलन क्रोध की दो मास जघन्य स्थिति है, संज्वलन मान की जघन्य स्थिति उससे आधी अर्थात् एक मास होती है और संज्वलन माया की जघन्य स्थिति उससे आधी अर्थात् अर्धमास--एक पक्ष है। पुरुषवेद की जघन्य स्थिति आठ वर्ष की है। इन सभी प्रकृतियों का अवाधाकाल अन्तर्मुहूर्त है और अबाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है । __ अबाधाकाल का प्रमाण प्रतिपादन करने के लिये 'भिन्नेत्यादि' पद कहा गया है । .. उसका अर्थ यह है कि पूर्वोक्त और आगे वक्ष्यमाण: सभी प्रकृतियों के सभी जघन्य स्थितिबंध में अबाधाकाल भिन्नमहुर्त जानना चाहिये । जो कि पहले प्रतिपादित किया गया है और आगे भी कहा १. उत्तराध्ययन ३३/२० में सातावेदनीय की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कही है। २. ग्यारह, बारह और तेरह, इन तीन गुणस्थानों में सातावेदनीय प्रथम समय बंधती है, दूसरे समय में अनुभव की जाती है और तीसरे समय में निर्जरा हो जाती है। इसलिये बंध और अनुभव के दो समय सत्तारूप माने जाते हैं। निर्जरा के समय को कर्म की सत्ता नहीं कहा जाता है। इसी दष्टि से सातावेदनीय की जघन्य स्थिति दो समय भी कही गई है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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