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________________ १६४ कर्मप्रकृति है, अर्थात् अबाधाकाल से रहित शेष स्थिति हीं अनुभव के योग्य होती है । इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरण आदि प्रकृतियों का और शेष उपर्युक्त प्रकृतियों का अवाधाकाल और अबाधाकालहीन कर्म दलिकनिषेक जानना चाहिये । स्त्रीवेद, मनुष्यद्विक ( मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी), सातावेदनीय की पूर्वोक्त स्थिति प्रमाण की आधी उत्कृष्ट स्थिति जानना चाहिये । अर्थात् स्त्रीवेदादि चारों प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति ( ३० Prasaranी आधी ) पन्द्रह (१५) कोडाकोडी सागरोपम जानना चाहिये । इन चारों प्रकृतियों का अबाधाकाल पन्द्रहसौ ( १५०० ) वर्ष है और अवाधाकाल से हीन शेष स्थिति कर्मदलिनिषेक रूप होती है । ' तिविहे मोहे सत्तरि, चत्तालीसा य वीसई य कमा । दस पुरिसे हासरई, देवदुगे खगइचेट्ठाए । ७१ । । शब्दार्थ - - तिविहे - त्रिविध, तीनों प्रकार के मोहे - मोहनीय की, सत्तरि-सत्तर, चत्तालीसा - चालीस, य - और, वीसई- बीस, य-और कमा- अनुक्रम से, दस-दस, पुरिसे - पुरुषवेद, हासरई - हास्य और रति, देवदुगे - देवद्विक, खगइचेट्टाए - शुभविहायोगति । गाथार्थ -- तीनों प्रकार के मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति अनुक्रम से सत्तर, चालीस और बीस कोडाकोड़ी सागरोपम तथा पुरुषवेद, हास्य, रति, देवद्विक और प्रशस्त (शुभ) विहायोगति की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम होती है । विशेषार्थ -- त्रिविध मोहनीय की अर्थात् मिथ्यात्व रूप दर्शनमोहनीय, सोलह कषाय रूप कषायमोहनी तथा नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा रूप नोकषायमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति यथाक्रम से सत्तर (७०), चालीस (४०) और बीस (२०) कोडाकोडी सागरोपम होती है । इनका अवाधाकाल भी यथाक्रम से सात हजार ( ७०००), चार हजार (४००० ) और दो हजार (२०००) वर्ष प्रमाण होता है। इनका कर्मदलिक निषेक अपने-अपने अबाधाकाल से हीन होता है । इस गाथा में पुरुषवेद, हास्य और रति प्रकृति का पृथक् रूप से स्थितिबंध कहा गया है तथा स्त्रीवेद का पूर्व गाथा में उत्कृष्ट स्थितिबंध कह दिया गया है, इसलिये यहाँ पर नोकषाय मोहनी के ग्रहण से नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा प्रकृति का ही ग्रहण करना चाहिये । 'दस पुरिसेत्यादि' अर्थात् पुरुषवेद, हास्य, रति, देवगति, देवानुपूर्वी रूप देवद्विक और खगतिचेष्टा अर्थात् प्रशस्तविहायोगति इन छह ( ६ ) प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम होती है । इन कर्म प्रकृतियों का अबाधाकाल दशवर्षशत अर्थात् एक हजार ( १००० ) वर्ष है और इस अवाघाकाल से हीन शेष स्थिति कर्मदलिकनिषेक रूप जानना चाहिये । १. यहां और आगे की गाथाओं में कर्म प्रकृतियों की जा उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है, उसका बंध केवल पर्याप्तक सज्ञी जीव ही कर सकते हैं । अतः यह स्थिति पर्याप्त संज्ञी जीवों की अपेक्षा समझना चाहिये । शेष जीव उस-उस स्थिति में से कितनी - वितनी स्थिति बांधते हैं, इसका निर्देश यथास्थान आगे किया जा रहा है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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