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________________ कर्मप्रकृति जघन्य स्थिति का एक पहला स्थान है, वही एक समय अधिक होने पर द्वितीय स्थितिस्थान होता है । दो समय अधिक होने पर तीसरा स्थितिस्थान होता है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होने तक कहना चाहिये । 1 ܘܐܐ ये स्थितिस्थान सूक्ष्म अपर्याप्तक जीव के सबसे कम होते हैं ( १ ) । उनसे अपर्याप्त बादर के संख्यातगुणे होते हैं (२) । उनसे सूक्ष्म पर्याप्तक के संख्यात गुणित होते हैं (३) । उनसे पर्याप्त बादर के संख्यात गुणित हैं ( ४ ) । ये सभी स्थान पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने प्रमाण जानना चाहिये । पर्याप्त बादर जीव के स्थितिस्थानों से अपर्याप्त द्वीन्द्रिय जीव के स्थितिस्थान असंख्यात गुणित होते हैं (५) । यह कैसे जाना जाये तो इसका उत्तर यह है कि अपर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों के स्थितिस्थान पत्योपम के संख्येय भागगत समय प्रमाण होते हैं और पाश्चात्य अर्थात् पर्याप्त बादर के स्थितिस्थान पल्योपम के असंख्यातवें भागगत समय प्रमाण होते हैं । इसलिये उन पर्याप्त बादर जीवों के स्थितिस्थानों से द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक जीवों के स्थितिस्थान असंख्यात गुणित ही सिद्ध होते हैं । अपर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों के स्थितिस्थानों से पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों के स्थितिस्थान संख्यात गुणित होते हैं ( ६ ) । उनसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक के स्थितिस्थान संख्यात गुणित होते हैं (७) । उनसे त्रीन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणित होते हैं (८) । उनसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक के स्थितिस्थान संख्यात गुणित होते हैं (९) । उनसे चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक के स्थितिस्थान संख्यात गुणित होते हैं . (१०) । उनसे असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव के स्थितिस्थान संख्यात गुणित होते हैं ( ११ ) । उनसे असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव के स्थितिस्थान संख्यात गुणित होते हैं ( १२ ) । उनसे संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणित होते हैं (१३) । उनसे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के स्थितिस्थान संख्यात गुणित होते हैं (१४) । इस प्रकार 'असमत्तियरे य' अर्थात् असमाप्तअपर्याप्त और इतर अर्थात् पर्याप्त बादर आदि जीवों के स्थितिस्थान क्रम से संख्यात गुणित कहना चाहिये । केवल एकेन्द्रियों के स्थितिस्थान कहने के अनन्तर द्वीन्द्रिय के अपर्याप्त रूप प्रथम भेद में स्थितिबंधस्थान असंख्यात गुणित कहना चाहिये और असंख्यात गुणित होने का कारण पहले स्पष्ट किया जा चुका है ।.. जीवभवों में संक्लेशस्थान • अब पूर्वोक्त चौदह भेड़ों में संक्लेशस्थानों को बतलाते हैं 'संकिलेसाइं सव्वत्य' अर्थात् उपर्युक्त सभी चौदह जीव भेदों में संक्लेशस्थान असंख्यात गुणित कहना चाहिये 1 द्वीन्द्रिय के अपर्याप्त लक्षण वाले प्रथम भेद में ही स्थितिस्थान असंख्यगुण कहना
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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