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________________ १३० कर्मप्रकृति अभिप्राय यह है कि एक-एक स्थावरप्रायोग्य अनुभागबंधस्थान अन्य-अन्य स्थावर जीवों के द्वारा निरंतर बांधा जाता हुआ सर्वकाल में पाया जाता है, कदाचित् भी बंधरहित नहीं होता है । ___इस प्रकार नाना जीवों का आश्रय करके कालप्ररूपणा की गई।' अब वृद्धिप्ररूपणा का अवसर है। वृद्धिप्ररूपणा ___ इस प्ररूपणा के दो अनुयोगद्वार हैं, यथा-- १. अनन्तरोपनिषा और २. परंपरोपनिधा । इसमें से पहले अनन्तरोपनिया के माध्यम से वृद्धिप्ररूपणा करते हैं थोवा जहन्नठाणे, जा जवमझ विसेसओ अहिआ। एत्तो होणा उक्कोसगं ति जीवा अणंतरओ ॥४६॥ ___शब्दार्थ-थोवा-अल्प, थोड़े, जहन्नठाणे-जघन्य अनुभागस्थान में वर्तमान जीव, जा-यावत्, पर्यन्त, तक, जवमझ- यवमध्य, विसेसओ-विशेष, अहिया-अधिक, एत्तो-यहाँ से, होणा-हीन, उक्कोसगं तिउत्कृष्ट स्थान तक, जीवा-जीव, अणंतरओ-अनन्तरपने से । ___.गाथार्थ-जघन्य अनुभागबंधस्थान पर जीव सबसे कम होते हैं और उससे आगे यबमध्य तक के स्थानों में अनन्तर रूप से विशेष-विशेष अधिक होते हैं । यहाँ से आगे उत्कृष्ट स्थान तक हीन-हीनतर होते हैं । विशेषार्थ-जघन्य अनुभागबंधस्थान पर बंधक रूप में वर्तमान जीव सबसे थोड़े होते हैं, उससे द्वितीय अनुभागबंधस्थान पर जीव विशेषाधिक होते हैं, उससे भी तृतीय अनुभागबंधस्थान पर विशेषाधिक होते हैं। इस प्रकार यह क्रम तब तक कहना चाहिये, जब तक कि 'जवमझ' अर्थात् यवमध्य रूप सर्व अनुभागस्थानों का अष्टसामयिक मध्यभाग प्राप्त होता है। उससे ऊपर पुनः जीव अनन्तर-अनन्तर क्रम से विशेषहीन-विशेषहीन तब तक कहना चाहिये, जब तक (हानि की अपेक्षा) उत्कृष्ट द्विसामयिक अनुभागबंधस्थान प्राप्त हो। - इस प्रकार अनन्तरोपनिधा से प्ररूपणा की गई, अब परंपरोपनिधा से प्ररूपणा करते हैं... गंतूणमसंखेज्जे, लोगे दुगुणाणि जाव जवमझं । एत्तो य दुगुणहीणा, एवं उक्कोसगं जाव ॥४७॥ शब्दार्थ-गंतूणं-उल्लंघन, अतिक्रमण कर, असंखेज्जे-असंख्यात, लोगे-लोकप्रमाण, दुगुणाणिदुगुने, जाव-यावत्, तक के; जवमझ-यवमध्य, एतो-इसके बाद, य-और दुगुणहीणा- द्विगुण-द्विगुणहीन, एवं-इस प्रकार, उक्कोसगं-उत्कृष्टस्थान, जाव-तक। १. नाना जीवापेक्षा कालप्रमाणप्ररूपणा का यह आशय है कि सप्रायोग्य एक-एक अनुभागबंधस्थान अन्य-अन्य स जीवों द्वारा जघन्य से निरन्तर एक या दो समय और उत्कृष्ट से आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण " काल तक निरन्तर रूप से बंधते हैं और स्थावरप्रायोग्य अनु० स्थान अन्य-अन्य स्थावर जीव निरन्तर सदैव बांधते रहते हैं।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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