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________________ बंधनकरण गुणित होते हैं । उनसे भी अनन्तगुणीवृद्धिः वाले स्थान असंख्यात मुणित होते हैं । यह कैसे ? तो इसका उत्तर है कि यहाँ प्रथम अनन्तगणीवद्धि वाले स्थान से आरंभ. करके षट्स्थानक को समाप्ति पर्यन्त जितने स्थान होते हैं, वे समी अनन्तगुणवृद्धि वाले होते हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--यदि प्रथम अनन्तगुणीवृद्धि वाला अनुभागस्थान पिछले अन्तरवर्ती स्थान की अपेक्षा अनन्त गुणों से अधिक होता है तो उससे उत्तरवर्ती अनन्तभागवृद्धि आदि वाले. अनुभागस्थान उसकी अपेक्षा स्वतः अनन्तगुणवृद्धि वाले होते हैं। जितने अनुभागस्थान पहले उल्लंघन किये जा चुके हैं, उतने ही स्थानः एक-एक अनन्तगुणवृद्धि वाले स्थानों के अन्तर-अन्तर में होने वाले स्थानों के अन्तराल में होते हैं । वे अन्तरस्थान कंडक प्रमाण होते हैं। इसलिये पहले कहे गये असंख्यातगुणवृद्धि वाले स्थानों से अनन्तगुणवद्धि वाले स्थान असंख्यात गुणित होते हैं । ___इस प्रकार परंपरोपनिधा से अल्पबहुत्व प्ररूपणा का कथन जानना चाहिये और अल्पबहुत्व-- प्ररूपणा करने के साथ ही अनुभागबंधस्थानों का विवेचन भी पूर्ण होता है।' ... .. " अब इन अनुभागबंधस्थानों में निष्पादक रूप से जीव क्सि रीति से रहते हैं, उसकी प्ररूपणा करने का अवसर प्राप्त है । इस विषय में निम्नलिखित आठ अनुयोगद्वार हैं (१) प्रत्येक स्थान में जीव प्रमाण-प्ररूपणा, (२) अन्तरस्थान-प्ररूपणा, (३.) निरंतरस्थानप्ररूपणा, (४) नाना जीव-कालप्रमाण-प्ररूपणा, (५) वृद्धि-प्ररूपणा, (६) यवमध्य-प्ररूपणा, (७) स्पर्शना-प्ररूपणा, (८) अल्पबहुत्व-प्ररूपणा । इन आठ अनुयोगों में से प्रथम एक-एक स्थान में नाना जीवों के प्रमाण व अन्तर का निरूपण करते हैं। प्रत्येक स्थान में जीवप्रमाण और अन्तर प्रख्पना थावरजीवाणंता, एक्कक्के तसजिया असंखेज्जा। लोगासिमसंखज्जा, अंतरमह श्रावर नत्यि ॥४४॥ शब्दार्थ-थावरजीवा-स्थावरजीव, अणंता-अनन्त, एक्कक्क-एक-एक अध्यवसायस्थान में, तसजियात्रसजीव, असंखेज्जा-असंख्यात, लोमातिमसंखेज्जा-असंख्यात लोकाकाशप्रदेशप्रमाण, अंतरं-अन्तर, अह-तथा, थावरे-स्थावरयोग्य अध्यवसायों में, नत्थि-(अंतर) नहीं है । गाथार्थ---अनुभागबंध के योग्य एक-एक अध्यवसायस्थान पर बंधक रूप से स्थावर जीव अनन्त और त्रसजीव असंख्य पाये जाते हैं। पुनः त्रसजीवप्रायोग्य अध्यवसायस्थानों में असंख्यात लोकाकाशप्रदेशप्रमाण का अन्तर रहता है तथा स्थावस्प्रायोग्य अध्यवसायस्थानों में अन्तर नहीं रहता है । १. परंपरोपनिधा से अल्पबहुत्त्वप्ररूपणा का सासंभ यह है कि अनन्तभागवृद्धि के स्थान सबसे कम, उससे असंख्यातभागवृद्धि के स्थान असंख्यातगुण, उससे संख्यातभागवृद्धि के स्थान संख्यातगुण, आसे संवयातगुणवृद्धि वाले स्थान संख्यातगुण, उससे असंख्यातगुणवृद्धि वाले स्थान असंख्बातमुण, उससे मत्तगुम्बृद्धि वाले स्थान असंख्यातगुण। २. अनुभागबंध-विवेचन संबंधी १४ अनुयोगद्वारों का सारांश परिशिष्ट में देखिin
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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