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________________ राशि प्रमाण होते हैं । उनसे भी उपरित्न अनुभागबंधस्थान षट्सामयिक होते हैं, वे भी असंख्यात लोकाकाश प्रदेशराशि प्रमाण होते हैं । उनसे भी उपरितन अनुभागबंधस्थान सप्तसामयिक होते हैं, वे भी असंख्यात लोकाकाय के प्रदेशों की राशि प्रमाण होते हैं । उनसे भी उपरितन अनुभागबंधस्थान अष्टसामयिक होसे हैं, वे भी असंख्यात लोकाकाश प्रदेशराशि प्रमाण होते हैं, उनसे भी उपरितन अनुभागबंधस्थान सप्तसामयिक होते हैं, वे भी असंख्यात लोकाकाश प्रदेशराशि प्रमाण होते हैं । उनसे उपरितन अनुभागबंधस्थान षट्सामयिक होते हैं, वे भी असंख्यात लोकाकाश प्रदेशराशि प्रमाण होते हैं । इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक कि द्विसामयिक अनुभागबंधस्थान प्राप्त हो ।' इस प्रकार समयप्ररूपणा की गई । अब जिस वृद्धि अथवा हानि में जो अष्टसामयिक अनुभागबंधस्थान प्राप्त होते हैं, उनको कहते हैंपवमध्यप्ररूपया दुसु जवमानं थोवा-णि अष्ठसमयाणि दोसु पासेसु । । समऊणियाणि कमसो असंखगुणियाणि उप्पि च ॥४०॥ शब्दार्थ--दुसु-दो में (अनन्तगुण वृद्धि और अनन्तगुण हानि में), जवमझ-यवमध्यरूप, थोवाणिअल्प हैं, अट्ठसमयाशि-अष्टसामयिक, दोसु-दोनों में, पासेसु-पार्यो (बाजुओं) में, समऊणियाणि-समयसमय अल्प स्थिति वाले, कमसो-क्रमशः, असंखयुणियाभि-असंख्यातगुण, उप्पि-ऊपर के, च-और । गाथार्थ अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि-इन दोनों में यवमध्यरूप अष्टसामयिक अनुभागबंधस्थान अल्प हैं, उनसे (अष्टसामयिक अनुभागबंधस्थानों से) यवमध्य के दोनों पार्श्ववर्ती सप्तसामयिक आदि एक-एक समयहीन अनुभामबंधस्थान कमशः असंख्यात गुणित होते हैं । यह ऊपर के त्रि और द्वि सामयिक अनुभागबंधस्थानों में भी जानना चाहिये । . विशेषार्थ--यवमध्य में अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि रूप दो विकल्प होते हैं । यव के मध्य के समान को यममध्य कहते हैं यानी अष्टसामयिक अनुभागबंधस्थान, · जिसमें अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहामि होती है। वह इस प्रकार समझना चाहिये कि-जैसे यव (जी) का मध्य बीच में मोटा होता है और दोनों बाजुओं में हीन-हीनतर होता जाता है, वैसे १. समयप्ररूपणा का सारांश यह है कि सर्व स्थानों का जघन्य काल एक समयं का है और उत्कृष्ट काल निम्न प्रकार है-जघन्य स्थान से असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थान चार समय की स्थिति वाले, उसके बाद के भसंख्य लोकभाश. प्रदेश प्रमाण. पांच समय की स्थिति वाले हैं। इसी प्रकार असंख्य, असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थान अवुक्रम से छह, सात, आठ समय की स्थिति वाले हैं। उससे आगे समय की हानि का कथन करना चाहिये । अर्थात् तदनन्तर के हानिगत असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण, असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थान अनुक्रम से सात, छह, पांच, चार, श्रीन और अंतिम स्थान दो समय की स्थिति बाले जानना चाहिये। .. २. उक्त कथन का फबितार्थ यह है कि अष्टमपविक अनुवागम्मत आरोह का चरम स्थान और अवरोह के प्रारम्भ होने का प्रथम स्थान है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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