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________________ बंधनकरण १०५ गाथार्थ--सबसे अल्प रसाणु वाले कर्म परमाणुओं की प्रथम वर्गणा होती है। उससे शेष वर्गणायें एक-एक रसाणु से बढ़ती हुई सिद्धों के अनन्तवें भाग जितनी विशेषहीन-विशेषहीन परमाणु वाली जानना चाहिये । विशेषार्थ-जो परमाणु अन्य समस्त परमाणुओं की अपेक्षा सबसे कम रसाविभाग (रसाणु) युक्त होते हैं, उन सर्वाल्प गुण वाले परमाणुओं का समुदाय रूप प्रथम वर्गणा कहलाती है । इस प्रथम वर्गणा में कर्मपरमाणु सब से अधिक होते हैं । किन्तु इसके बाद की शेष वर्गणायें. कर्मपरमाणुओं की अपेक्षा विशेषहीन, विशेषहीन होती हैं। जिसको इस प्रकार समझना चाहिये--प्रथम वर्गणा में जितने कर्मपरमाणु होते हैं, उसकी अपेक्षा द्वितीय वर्गणा में कर्मपरमाणु विशेषहीन होते हैं, उससे भी तृतीय वर्गणा में विशेषहीन होते हैं । इस प्रकार सर्वोत्कृष्ट वर्गणा प्राप्त होने तक जानना चाहिये । ये वर्गणायें किस प्रकार की होती हैं ? इस जिज्ञासा का समाधान करने के लिये गाथा में-'अविभागुत्तरियाओ' यह पद दिया गया है कि वर्गणायें एक-एक रसाविभाग से अधिक होती हैं । जैसे--प्रथम वर्गणा के परमाणुओं की अपेक्षा एक रसाविभाग से अधिक परमाणुओं का जो समुदाय है, वह दूसरी वर्गणा कहलाती है, उनसे भी एक रसाविभाग से अधिक परमाणुओं का समुदाय तीसरी वर्गणा कहलाती है। इस प्रकार एक-एक रसाविभाग की वृद्धि से वर्गणायें तब तक कहना चाहिये, जब तक कि वे अभव्यों से अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण होती हैं। इस प्रकार वर्गणाप्ररूपणा जानना चाहिये । २ अब क्रमप्राप्त स्पर्धक आदि प्ररूपणाओं का कथन करते हैं। स्पर्धक, अन्तर और स्थान प्ररूपणा फड्डगमणंतगुणियं, सव्वजिएहि पि अंतरं एवं । सेसाणि वग्गणाणं, समाणि ठाणं पढममित्तो ॥३१॥ शब्दार्थ--फड्डगं-स्पर्धक, अणंतगुणिय-अनन्तगुणी, सव्वजिएहि पि-सर्व जीवों से, अंतरंअन्तर, एवं-इस प्रकार, सेसाणि-शेष, वग्गणाणं-वर्गणाओं का, समाणि-समान, ठाणं-स्थान, पढमप्रथम, इत्तो-इससे (प्रथम स्पर्धक से)। गाथार्थ-(अभव्यों से) अनन्तगुणी वर्गणाओं का एक स्पर्धक होता है । प्रथम स्पर्धक के पश्चात् सर्व जीवों से अनन्तगुणी वर्गणाओं का अन्तर पड़ता है । इस प्रकार से वर्गणाओं के समान शेष स्पर्धक और अन्तर होते हैं, तब प्रथम (अनुभागबंध) स्थान होता है । १. उक्त कथन का आशय यह है कि पूर्व वर्गणा की अपेक्षा उत्तर वर्गणा में कर्मपरमाणु हीन-हीनतर होते जाते हैं; लेकिन परमाणुओं की हीनता से रसाविभागों की भी हीनता होती जाये, ऐसा नहीं समझना चाहिये। रसाविभागों की तो उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। वर्गणाप्ररूपणा के कथन का सारांश यह है कि समान रसाविभाग युक्त कर्मपरमाणु का. समुदाय वर्गणा है, सर्वजघन्य रसाविभाग युक्त कर्मप्रदेशों का समुदाय यह प्रथम वर्गणा है, उसमें कर्मपरमाणु सर्वाधिक किन्तु रसाण अल्प होते हैं। उससे एक रसाणु अधिक कर्मप्रदेशों का समुदाय द्वितीय वर्गणा, उसमें पूर्व वर्गणा की अपेक्षा कर्मपरमाणु हीन । इस प्रकार एक-एक रसाविभाग से बढ़ती-बढ़ती और परमाणुओं से घटती-घटती वर्गणायें जानना चाहिये।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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