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________________ .. शब्दार्थ-गहणसमयम्मि-ग्रहण के समय, जीवो-जीव, उप्पाएई-उत्पन्न करता है, गुणंरसाणुओं को, सपच्चयओ-स्वप्रत्यय से, सम्वजियाणंतगुणे-सब जीवों से अनन्तगुणे, कम्मपएसेसुकर्मप्रदेशों में, सम्वेसं-सर्व ।। ...गाथार्थ-कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करते समय जीव अपने प्रत्यय से सर्व कर्मप्रदेशों में सब जीवों से अनन्तगुणे रसाणुओं (रस संबंधी अविभाग अंशों) को उत्पन्न करता है। विशेषार्थ--अनुभागबंध के कारण काषायिक अध्यवसाय है, क्योंकि 'ठिहमणुभागं कसायाओ कुबई' स्थिति और अनुभाग बंध को जीव कषाय से करता है, ऐसा शास्त्रवचन है । वे काषायिक अध्यवसाय दो प्रकार के होते हैं-शुभ और अशुभ । इनमें से शुभ. अध्यवसायों द्वारा गृहीत कर्मपुद्गलों में दूध, खांड के रस के समान आनन्दजनक अनुभाग प्राप्त होता है और अशुभ अध्यवसायों द्वारा गृहीत कर्मपुद्गलों में नीम, घोषातिकी आदि के रस के समान दुःखजनक कटुक रस उत्पन्न होता है ।। - ये शुभ और अशुभ काषायिक अध्यवसाय प्रत्येक असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं, केवल शुभ अध्यवसाय विशेषाधिक जानना चाहिये । जो इस प्रकार हैं-क्रम से स्थापित जिन अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों को संक्लिश्यमान जीव क्रम से नीचे-नीचे प्राप्त करता है, उन्हीं अध्यवसायों को विशुद्धयमान जीव क्रम से ऊपर-ऊपर चढ़ता हुआ प्राप्त करता है। जैसे प्रासाद से नीचे उतरते हुए जितने सोपानस्थान (सीढ़ियां) होते हैं, चढ़ते हुए भी उतने ही सोपान होते हैं । उसी प्रकार यहाँ पर भी संक्लिश्यमान जीव के जितने अशुभ अध्यवसाय होते हैं, उतने ही विशुद्धयमान जीव के शुभ अध्यवसाय होते हैं। कहा भी है क्रमशः स्थितासु काषायिकोष जीवस्य भावपरिषतिषु । अवपतनोत्पतनाद्धे संक्लेशाद्धा विशोध्यद्धे । क्रम से स्थित काषायिकी भावपरिणतियों में जीव के पतनकाल में संक्लेश-अद्धा होता है और उत्थानकाल में विशुद्धि-अद्धा होता है । लेकिन क्षपक जीव जिन अध्यवसायों में रहता हुआ क्षपकश्रेणी पर चढ़ता है, उनसे पुनः लौटता नहीं है । क्योंकि क्षपकणि से प्रतिपात (पतन) नहीं होता है । इस अपेक्षा से शुभ अध्यवसाय विशेषाधिक होते हैं । - इनमें से शुभ या अशुभ किसी एक अध्यवसाय से, स्वप्रत्यय से अर्थात् अपनी आत्मा संबंधी अनुभागबंध के प्रति जो कारणभूत हैं, ऐसे स्वप्रत्यय से जीव ग्रहण समय में अर्थात् योग्य १. अकाषायिक अध्यक्साय रस के कारण नहीं होने से यहां उनकी अविवक्षा है। . ., अशुभ अध्यवसाय तो प्रगट रूप से कषायजन्य हैं और शुभ अध्यवसायों में कषाय की हीनता है, तो भी कषायानुगत होने से काषायिक हैं। यहाँ कषाय शब्द से कषाय का उदय जानना चाहिये, परन्तु सत्ता नहीं। '' ३. अशुभ से शुभ अध्यवसाय कोई पुषक-पृथक् नहीं हैं। संक्लेशवर्ती जीव की अपेक्षा जो अध्यवसाय अशुभ हैं, वही अध्यवसाय विद्यमान जीव की अपेक्षाभ हैं। जैसे-मिथ्यात्वीको बोमति-अज्ञान है, वही सम्यक्त्व प्राप्त करने पर मतिज्ञान रूप हो जाता है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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