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________________ कर्मप्रकृति अयशः कीर्तिनामकर्म का प्रदेशाग्र सबसे कम है, उससे यशः कीर्तिनामकर्म का प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है । इनके अतिरिक्त शेष रही आतप, उद्योत, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति, सुस्वर और दुःस्वर प्रकृतियों का प्रदेशाग्र उत्कृष्ट पद में परस्पर समान है ।" १०० · निर्माण, उच्छ्वास, पराघात, उपघात, अगुरुलघु और तीर्थंकर नाम का अल्पबहुत्व नहीं है । क्योंकि यहाँ जो अल्पबहुत्व बतलाया है, वह सजातीय प्रकृति की अपेक्षा से होता है । जैसे कि कृष्ण आदि वर्णनामकर्मों का शेष वर्णों की अपेक्षा अथवा जैसे सुभग- दुर्भग का प्रतिपक्षी प्रकृति की अपेक्षा से होता है । किन्तु ये प्रकृतियां परस्पर सजातीय नहीं हैं। क्योंकि इनमें एक मूल पिंडप्रकृतित्व का अभाव है और न ये प्रकृतियां परस्पर विरोधिनी भी हैं । क्योंकि इनका एक साथ बंध संभव है । ७. गोत्रकर्म -- उत्कृष्ट पदं में नीचगोत्र का प्रदेशाग्र सबसे कम है, उससे उच्चगोत्र का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है । ८. अन्तरायकर्म - उत्कृष्ट पद दानान्तराय का प्रदेशाग्र सबसे कम है, उससे लाभान्तराय का "प्रदेशाग्र विशेषाधिक है, उससे भोगान्तराय का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है, उससे उपभोगान्तराय का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है और उससे वीर्यान्तराय का प्रदेशाग्र विशेषांधिक है । इस प्रकार उत्कृष्टपंद में उत्तरप्रकृतियों का प्रदेशाग्र संबंधी अल्पबहुत्व जानना चाहिये । जघन्यपद में उत्तर प्रकृतियों के प्रदेशानों का अल्पबहुत्व अब जघन्यपद में सभी उत्तरप्रकृतियों के प्रदेशाग्र संबंधी अल्पबहुत्व का निरूपण करते हैं- १. ज्ञानावरणकर्म - केवलज्ञानावरण का जघन्यपद में प्रदेशाग्र सबसे कम है, उससे मन:पर्ययज्ञानावरण का प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है, उससे अवधिज्ञानावरण का विशेषाधिक है, उससे श्रुतज्ञानावरण का विशेषाधिक है और उससे भी मतिज्ञानावरण का विशेषाधिक है । २. दर्शनावरणकर्म -- जघन्यपद में निद्रा का प्रदेशाग्र सबसे कम है, उससे प्रचला का विशेषाधिक है, उससे निद्रा-निद्रा का विशेषाधिक है, उससे प्रचलाप्रचला का विशेषाधिक है, उससे स्त्यानद्धि का विशेषाधिक है, उससे केवलदर्शनावरण का विशेषाधिक है, उससे अवधिदर्शनावरण का अनन्तगुणा है, उससे अचक्षुदर्शनावरण का विशेषाधिक है, उससे चक्षुदर्शनावरण का विशेषाधिक है । १. नामकर्म की कतिपय उत्तर प्रकृतियों का उत्कृष्टपद में अल्पबहुत्व भिन्न प्रकार से कहा है । वह इस प्रकार है १. शुभ विहायोगति का प्रदेशाग्र सबसे अल्प है, उससे अशुभ विहायोगति का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है। २. बादरनाम का प्रदेशाग्र अल्प, उससे सूक्ष्मनाम का विशेषाधिक । ३. सुस्वरनामकर्म का प्रदेशाग्र अल्प, उससे दुःस्वरनाम का विशेषाधिक। ४. यश: कीर्तिनामकर्म का प्रदेशाग्र अल्प, उससे अयशः कीर्तिनाम का विशेषाधिक । . ५. आतप उद्योत का प्रदेशाग्र अल्प, किन्तु स्वस्थान में तुल्य । ( यहां अल्पबहुत्व किसकी अपेक्षा है ? यह विचारणीय है ) । यहां टीकाकार आचार्य ने आतप आदि प्रकृतियों में युगल विवक्षा प्रगट नहीं की है, किन्तु श्रीमद् देवेन्द्रसूरि कृत शतक टीका के अनुसार युगलपूर्वक भिन्न विवक्षा करने में कोई विरोध प्रतीत नहीं होता है ।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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