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________________ बंधनकरण ९३ गाथार्थ - सर्वघाति प्रकृतियों को प्राप्त होने वाले कर्मदलिक स्वकर्मप्रदेश के अनन्तवें भाग प्रमाण हैं और शेष देशघाति कर्मदलिक ज्ञानावरण में चार भागों, दर्शनावरण में तीन भागों और अन्तराय में पांच भागों में विभाजित होते हैं । विशेषार्थ -- जो कर्म दलिक सर्वघाति प्रकृतियों को प्राप्त होता है, अर्थात् केवलज्ञानावरण आदि स्वरूप वाली कर्मप्रकृतियों को प्राप्त हुआ है, वह अपने मूल कर्म को प्राप्त कर्मदलिकों का अनन्तवां भाग है । अर्थात् ज्ञानावरण आदि मूल प्रकृति को जो मूल भाग प्राप्त होता है, उसका अनन्तवां भाग सर्वघाति प्रकृति को प्राप्त होता है । प्रश्न -- इसमें क्या युक्ति है कि सर्वघाति प्रकृतियों को अनन्तवां भाग ही प्राप्त होता है ? उत्तर - आठों ही मूल प्रकृतियों को प्राप्त भागों में से जो अति स्निग्ध परमाणु होते हैं, वे सबसे कम होते हैं और वे अपनी-अपनी मूल प्रकृति को प्राप्त परमाणुओं के अनन्तवें भाग मात्र होते हैं और वे ही परमाणु सर्वघाति प्रकृतिरूप से परिणमित होने योग्य होते हैं । इसीलिये यह कथन किया गया है कि सर्वघाति प्रकृति को प्राप्त दलिक अपनी मूल प्रकृति के प्रदेशों के अनन्त भाग प्रमाण हैं । इस अनन्त भाग को मूल प्रकृति के सर्व द्रव्य में से कम करने पर शेष रहे कर्म दलिक सर्वघाति प्रकृति से व्यतिरिक्त और उस समय बंधने वाली मूल प्रकृति के अवान्तर भेदरूप उत्तर प्रकृतियों में विभाजित हो जाते हैं । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- आवरण अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों में से प्रत्येक का सर्वघाति प्रकृति निमित्त अनन्तवां भाग निकाल देने पर शेष रहे कर्मदलिकों के यथाक्रम से चार भाग और तीन भाग किये जाते हैं और उन्हें ( कर्मदलिकों को ) शेष देशघाति प्रकृतियों को दिया जाता है तथा विघ्न - अन्तराय कर्म को जो मूल भाग प्राप्त होता है, वह सबका सब पांच भागों में विभाजित करके दानान्तराय आदि पांचों प्रकृतियों को दिया जाता है । उक्त कथन का यह आशय है कि ज्ञानावरण कर्म को स्थिति के अनुसार जो मूल भाग प्राप्त होता है, उसका अनन्तवां भाग केवलज्ञानावरण को दिया जाता है और शेष द्रव्य के चार भाग किये जाकर उनमें से एक-एक भाग मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और मन:पर्ययज्ञानावरण को दिया जाता है । दर्शनावरण कर्म को भी जो मूल भाग प्राप्त होता है, उसके अनन्तवें भाग के छह भेद करके एक-एक भाग पांच निद्राओं और केवलदर्शनावरण इन छहों सर्वघाति प्रकृतियों को दिया जाता है और शेष रहे द्रव्य के तीन भाग किये जाते हैं और वे चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण को दिये जाते हैं । अंतराय कर्म को जो मूलभाग प्राप्त होता है, उस सबके ही पांच भाग करके दानान्तराय आदि पांचों अन्तराय कर्म के भेदों को दे दिया जाता है। अन्तराय कर्म में सर्वघातिरूप अवान्तर भेद का अभाव है। अर्थात् अन्तराय देशघाति कर्म है । जिससे उसकी कोई भी उत्तरप्रकृति सर्वघाति नहीं है, किन्तु सभी प्रकृतियां देशघाति हैं ।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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