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________________ १: प्रकृतिबंध . .. . ....... . . ..............---- जीव और कर्मपुद्गलों का सम्बन्ध स्नेहप्रत्ययिक है। यह स्पष्ट हो जाने पर जिज्ञासु ने अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत की है कि वे संबद्ध कर्मपुद्गल एक जैसे ही रहते हैं या उनमें कुछ विशेषताएं आ जाती हैं और यदि विशेषतायें उत्पन्न होती हैं, तो वे कौन-सी हैं? इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए आंचार्य कहते हैं कि प्रकृतिभेद से उन कर्मपुद्गलों के मूल और उत्तर विभाग होते हैं-- मूलुत्तरपगईणं अणुभागविसेसओ हवइ भेओ। ....... अविसेसियरसपगइओ, पगईबंधो मुणेयन्वो ॥२४॥ - शब्दार्थ--मूलुत्तरपगईणं-कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियां, अणुभागविसेसओ-अनुभाग, स्वभाव विशेष से, हवई-होती हैं।. भेओ-भेद, अविसेसिय -सामान्य, रस-रस, पगइओप्रकृत्यादिरूप, पगईबंधो-प्रकृतिबंध, मुणेषन्वो-जानना चाहिये। गाथार्थ---म्ल और उत्तर प्रकृतियों का भेद अनुभाग (स्वभाव) विशेष से होता है। यहाँ पर रस अर्थात् अनुभाग, प्रकृत्यादि रूप की विवक्षा न करके प्रकृतिबंध जानना चाहिये। ......... विशेषार्थ--यहाँ पर प्रकृति -शब्द भेद पर्याय . का. भी वाचक है, अर्थात् यहाँ पर प्रकृति शब्द का भेद ऐसा भी अर्थ होता है। जैसा कि भाष्यकार ने कहा है--अहवा पयडी भेओ। इसलिए मूल और उत्तर प्रकृतियों के अर्थात् कर्म सम्बन्धी मूल और उत्तर भेद अनुभागविशेष. से यानी - ज्ञान को आवरण करने आदि लक्षण वाले स्वभाव की विचित्रता से होते हैं, अन्य प्रकार से नहीं। - यहाँ पर अनुभाग शब्द स्वभाव का पर्यायवाचक. जानना चाहिये। ..चूर्णि में इसी प्रकार कहा है अनुभागो त्ति सहावो ।' . इस बंधनकरण में प्रकृतिबंध आदि प्रत्येक आगे विस्तारपूर्वक कहे जायेगें। - शंका-प्रत्येक कर्म में जबः प्रकृतिबंध आदि संकीर्ण अर्थात् एक साथ मिले हुए होते हैं तो फिर प्रत्येक का भिन्न वर्णन कैसे हो सकता है ? यदि ऐसा किया जायेगा तो कोई मनुष्य व्यामोह को प्राप्त हो सकता है। . ............... समाधान--इस प्रकार की आशंका व्यक्त करने वाले के व्यामोह को दूर करने के लिए ही तो गाथा. में प्रकृतिबंध' यह पद दिया है और 'तु' शब्द द्वारा उपलक्षण से अन्य स्थितिबंध आदि विचित्रता अर्थात् विभिन्नता को स्पष्ट करते हुए ‘अविसेसियरसपगइओ' यह पद कहा है। - रस, स्नेह और अनुभाग ये तीनों एकार्थवाचक हैं । उस रस की प्रकृति अर्थात् स्वभाव जिसमें अविशेषित अर्थात् अविवक्षित हो यानी जिसमें रस की विवक्षा न हो तथा उपलक्षण से स्थिति १. स्वभावभेदं से वस्तु का भेद होता है, जैसे तृण, दूध आदि । उसी प्रकार यहां पर भी समझना चाहिये कि कर्म रूप से पुदगलदलिकों की समानता होने पर भी स्वभावभेद से अन्तर, भेद हो जाता है। -
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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