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________________ कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण - आचार्य श्री नानेश विश्व के विचित्र दृश्यों की ओर दृष्टिपात करने पर चिन्तकवर्ग के मस्तिष्क में विविध विचारतरंगें परिस्फुरित होती हैं। चिन्तन चलता है विचित्र दृश्यों के वैविध्य पर। जब विभिन्न प्राणियों में विविधता दृष्टिगोचर होती है तब चिन्तन चलता है कि इसका कारण क्या है ? एक ही माता की कुक्षि से जन्म लेने वाली सन्तानों में एकरूपता क्यों नहीं है ? एक की वर्णाकृति किसी अन्य प्रकार की है तो दूसरे की किसी और ही प्रकार की । एक का शरीर सुडौल है तो दूसरे का इससे भिन्न रूप में। एक धनवान है तो दूसरा निर्धन । एक बुद्धिमान है तो दूसरा निर्बुद्धि । एक सौम्य-स्वभावी है तो दूसरा आक्रोश-स्वभावी। एक अनेकों का नेतृत्व कर रहा है तो दूसरा अनेकों की गुलामी । एक स्वस्थ है तो दूसरा रोगग्रस्त । एक ही शारीरिक उपादानकारण की अवस्था से जन्म लेने वालों में कार्य रूप परिणति विभिन्न रूपों में परिलक्षित होती है। आश्चर्य तो इस बात का है कि एक ही माता की कुक्षि से जुड़वां रूप में जन्म लेने वाली सन्तान में भी उपर्युक्त विभिन्नता पाई जाती है। वैसे ही समग्र दृश्यमान सृष्टि पर दृष्टिपात करने पर एक जैसी सदृशता, एकस्वभावता प्रायः दृष्टिगत नहीं होती । चिन्तनशील व्यक्ति जगत् की इन विचित्र विधाओं को जानने हेतु विविध कल्पनाएं करता रहता है, परन्तु सम्यग् हेतु को सही तरीके से अन्वेषित नहीं करने के कारण मन-कल्पित किंवा अनुमानित अपूर्ण कल्पनाएं करता रहता है। यही कारण है कि मानव ने जब से चिन्तन करना प्रारम्भ किया तब से पूर्वात्य, पाश्चात्य किसी भी क्षेत्र में रहने वाले चिन्तक ने अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार इस वैचित्र्य पर विचार किया, किन्तु वे जिन संस्कारों से अनुरंजित थे उसी रूप में उन्होंने विभिन्न विचित्रताओं के कारण को खोजने का प्रयास किया। किसी ने पानी को सर्वोपरि स्थान दिया तो किसी ने अग्नि को, किसी ने क्रियाकलापों को तो किसी ने काल को विचित्र दृश्यों का कारण माना । किसी ने स्वभाव को, किसी ने नियति को तो किसी ने पुरुषार्थ एवं ईश्वर को कार्यों का कारण माना । किसी ने ग्रह-गोचर को कारण माना तो किसी ने अज्ञात को। परन्तु इस प्रकार के एकांगी चिन्तन विचित्रता के कारण का सही तथ्य उजागर नहीं कर सके। इस धरा पर उत्कृष्ट पुण्यप्रकृति-तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन कर जो दिव्य महापुरुष प्रादुर्भत हुए, जिन्होंने परीषहों और उपसर्गों को सहन कर राग-द्वेष की ग्रन्थियों का सर्वथा उन्मूलन कर ज्ञान का दिव्य आलोक प्राप्त किया, जिनके ज्ञान में दृश्य एवं अदृश्य जगत के सारे पदार्थ हस्तामलकवत् स्पष्ट झलकते थे, उन तीर्थंकर महापुरुषों ने इन विचित्रताओं को देखा, जाना तथा इनके मूल कारण को जनता के समक्ष विवेचित किया। वह विवेचन वीतरागी देवों द्वारा प्ररूपित होने से अविसंवादी तथा अनेकान्त-दृष्टि से संपन्न था। प्रखर प्रज्ञासंपन्न व्यक्तियों ने इस विषय को गहराई से समझा तथा यथासमय लिपिबद्ध करके इसे जनता के समक्ष रखा, वही कर्मसिद्धान्त के रूप में स्थिरीभूत हुआ । कर्मसिद्धान्त का वर्णन इतना विस्तृत हुआ कि इसका समावेश आग्रायणीय नामक द्वितीय पूर्व के कर्मप्रवाद में किया गया है। मूलतः कर्मसिद्धान्त के उपस्कर्ता दिव्यपुरुष केवलज्ञान और केवलदर्शन तथा यथाख्यातचारित्र के धारक अनंत शक्तिसंपन्न तीर्थंकर देव ही हैं। नोट-आचार्यश्री द्वारा कर्मसिद्धान्त की गई विवेचना से संकलित। . ..
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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