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________________ कर्मप्रकृति परमाणओं का जो रस है, उसे केवली के प्रज्ञारूप छेदनक के द्वारा छेदा जाये और उत्तरोत्तर छेद करके जो निविभाग भाग किये जाते हैं, उन्हें अविभागप्रतिच्छेद' कहते हैं। ये गुणपरमाणु अथवा भावपरमाणु भी कहलाते हैं । यह अविभागप्ररूपणा है । २. वर्गणाप्ररूपणा---एक स्नेहाविभाग से युक्त पुद्गल परमाणु शरीरयोग्य नहीं होते हैं। अर्थात् पन्द्रह प्रकार के शरीरबंधन नामकर्म के भेदों में से किसी भी एक बंधन के योग्य नहीं होते हैं ।' इसी प्रकार दो स्नेहाविभागों से युक्त पुद्गल परमाणु शरीरयोग्य नहीं है और न तीन, चार आदि संख्यात स्नेहाविभागों से युक्त पुद्गल परमाणु शरीरयोग्य हैं और न असंख्यात और अनन्त स्नेहाविभागों से युक्त ही पुद्गल परमाणु किसी भी शरीर के बंधनयोग्य होते हैं, किन्तु सर्व जीवों से अनन्तगुणप्रमाण, अनन्तानन्त. स्नेहाविभागों से युक्त पुद्गल परमाणु ही शरीरप्रायोग्य होते हैं । उन सब अनन्तानन्त स्नेहाविभागों का समदाय प्रथम वर्गणा है और वह भी जघन्य वर्गणा है। इसके आगे एक-एक अविभाग की वृद्धि से निरंतर वृद्धि को प्राप्त होती हुई वर्गणायें तब तक कहना चाहिये, जब तक कि उनका प्रमाण अभव्यों से अनन्त गुणा और सिद्धों के अन भाग प्रमाण हो जाये । ३. स्पर्धकप्ररूपणा-इन सब वर्गणाओं का समुदाय एक स्पर्धक कहलाता है। इससे आगे एक, दो आदि स्नेहाविभागों से अधिक परमाण प्राप्त नहीं होते हैं, किन्तु सर्वजीवों से अनन्तगुण प्रमाण अनन्तानन्त रसाविभागों से अधिक परमाणु प्राप्त होते हैं, उन सबका समुदाय दूसरे स्पर्धक की पहली वर्गणा है । उसमें स्नेहाविभाग प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणागत स्नेहाविभागों से दुगने होते हैं। तदनन्तर एक-एक स्नेहाविभाग की वृद्धि से निरन्तर वर्गणायें तब तक कहना चाहये, जब तक कि वे अभव्यों से अनन्त गुणी और सिद्धों के. अनन्तवें भाग प्रमाण हो जायें । उनका समुदाय दूसरा स्पर्धक है। इसके आगे एक, दो आदि स्नेहाविभाग से बढ़ते हुए परमाणु प्राप्त नहीं होते है, किन्तु सर्वजीवों से अनन्तानन्त स्नेहाविभागों से वृद्धिंगत परमाणु प्राप्त होते हैं । उनका समुदाय तीसरे स्पर्धक की प्रथम वर्गणा होती है। उसमें स्नेहाविभाग प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा से तिगुने होते हैं । इससे आगे एक-एक स्नेहाविभाग की वृद्धि से पूर्वोक्त प्रमाण अर्थात् अभव्यों से अनन्त गुणी और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण वर्गणायें कहना चाहिये । उन सबका समुदाय तीसरा स्पर्धक है । इस प्रकार जितनी संख्या वाले स्पर्धक का विचार किया - 'जाये, उसकी आदि वर्गणा में प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणागत स्नेहाविभाग से उतनी-उतनी ही 'संख्या से गणित प्राप्त होते हैं। ये सब स्पर्धक अभव्यों से अनन्त गुणित और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण होते हैं । : ४. अन्तरप्ररूपणा-इन स्पर्धको के अन्तराल, एक कम स्पर्धक की संख्या के समान होते ' हैं । क्योंकि चार वस्तुओं के अन्तराल तीन ही होते हैं तथा वर्गणाओं में अनन्तर क्रम से दो . १... औदारिका दि पांचों शरीरों में से किसी भी शरीर रूप परिणमित नहीं होते हैं। २. देहरूप परिणमित होने वाले पुद्गलस्कन्धों के प्रत्येक प्रदेश में कम-से-कम भी सर्व जीवराशि से अनन्त गुणे स्नेहा विभाग अवश्य होते हैं। इन जघन्य स्नेहाविभाग युक्त जितने परमाणु हैं, उन सबका समुदाय प्रथम वर्गणा है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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