SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधनकरण भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यचों का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा होता है । ३१. उससे तीसरे शरीरधारी अर्थात् आहारक शरीरधारी जीवों का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा होता है । ३२.. उससे शेष रहे देव, नारक, तिथंच और मनुष्यों का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा होता है।' यहां सर्वत्र असंख्यात का गुणाकार सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भागगत प्रदेशों की राशि प्रमाण एवं पर्याप्तक का अर्थ सर्वत्र करण-पर्याप्त जानना चाहिये। जीव द्वारा योगों से किया जाने वाला कार्य विस्तार से योग-प्ररूपणा करने के बाद अब इससे जीव द्वारा किये जाने वाले कार्य का कथन करते हैं जोहि तयणुरूवं परिणमइ गिहिऊण पंचतणू । पाउग्गे वालंबइ, भासाणुमणत्तणे खंधे ॥१७॥ शब्दार्थ-जोहि-योगों द्वारा, तयणुरुवं-तदनुरूप (योगों के अनुरूप), परिणमइ-परिणमाता है, गिहिऊण-ग्रहण करके, पंचतण-पांच शरीर रूप, पाउग्गे-प्रायोग्य, वा-तथा, आलंबइ-अवलंबन लेता है, भासाणुमणतणे-भाषा, श्वासोच्छ्वास और मन रूप परिणत, खंधे-स्कन्धों से। गाथार्थ--योगों के द्वारा जीव योगों के अनुरूप औदारिकादि शरीर प्रायोग्य पुद्गलस्कन्धों को ग्रहण करके औदारिकादि पांच शरीर रूप परिणमाता है तथा भाषा, श्वासोच्छ्वास, मन रूप परिणमित हुए पुद्गल स्कन्धों का अवलंबन लेता है। .. विशेषार्थ—पूर्वोक्त लक्षण वाले योगों के द्वारा जीव तदनुरूप अर्थात् योगों के अनुरूप पुद्गलों को ग्रहण करता है । यानी जघन्य योग में वर्तमान जीव अल्प पुद्गलस्कन्धों को, मध्यम योग में वर्तमान मध्यम, अनुत्कृष्ट पुद्गलों को और उत्कृष्ट योग में वर्तमान जीव प्रभूत, अधिक पुद्गलस्कन्धों को ग्रहण करता है। इस प्रकार तत्-तत् प्रायोग्य अर्थात् औदारिकादि शरीरों के योग्य स्कन्धों यानि पुद्गलस्कन्धों को ग्रहण करके उन्हें पांच शरीर रूप से परिणमाता है। गाथा में “पंचतणू" इस प्रकार का भावप्रधान निर्देश होने से उसका अर्थ हुआ कि औदारिक आदि पांच शरीर तथा भाषा, प्राणापान (श्वासोच्छ्वास) और मन के योग्य पुद्गलस्कन्धों को पहले ग्रहण करता है, ग्रहण करके भाषादि रूप से परिणत करता है और परिणत करके उनके निसर्ग की कारणभूत सामर्थ्य विशेष की सिद्धि के लिये उन पुद्गलस्कन्धों का अवलंबन लेता है । पुनः उनके अवलंबन से सामर्थ्यविशेष वाला होता हुआ उन्हें छोड़ता है, उसके बिना नहीं छोड़ सकता है। जैसे-बिल्ली को जब ऊपर १. अन्य जीवभेदों की तरह संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के उत्कृष्ट योग के अल्पबहत्व का कथन सामान्य रूप से न करके अपेक्षाकृत अन्तर वालों का तो पृथक्-पृथक् बताया है और शेष का अर्थात् जिनमें अपेक्षाकृत अल्पबहुत्व नहीं है, उनका सामान्य से मात्र नामोल्लेख कर दिया है। ........... २. योग सम्बन्धी अविभाग-प्ररूपणा आदि दस प्ररूपणाओं का संक्षिप्त विवरण परिशिष्ट में देखिये। . ३. तुलना कीजियेजोगाणरूव जीवा परिणामंतीह गिडि दलियं । . . --पंचसंग्रह, बंधनकरण १३
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy