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________________ ५२ कर्मप्रकृति होती है और दूरवर्ती अंस (कंधा आदि) की चेष्टा अल्प होती है तथा उससे भी अधिक दूरवर्ती पैर आदि के भीतर रहने वाले आत्मप्रदेशों की चेष्टा और भी कम होती है, यह बात अनुभवसिद्ध । इसी प्रकार लोष्ट आदि के आघात होने पर सर्व आत्मप्रदेशों में एक साथ वेदना का उदय होने पर भी जिन आत्मप्रदेशों की आघात करने वाले लोष्ट आदि द्रव्य के साथ निकटता होती है, उन प्रदेशों में तीव्रतर वेदना और शेष प्रदेशों में मंद और मंदतर वेदना होती है । उसी तरह कार्य - रूप द्रव्य की समीपता और दूरवर्ती विशेषता से आत्म- प्रदेशों में वीर्य की विषमता जानना चाहिये । यह विषमता जीवप्रदेशों के सम्बन्धविशेष होने पर होती है, अन्यथा नहीं, जैसे कि सांकल के अवयवों 1 की। क्योंकि वे सांकल के अवयव परस्पर सम्बन्धविशेष वाले । इसलिये एक अवयव में परिस्पन्दन ( हलन चलन ) होने पर दूसरे भी अवयव परिस्पन्दन को प्राप्त होते हैं । केवल उसमें अन्तर यह है कि कुछ अवयव अल्प परिस्पन्दन को प्राप्त होते हैं और कुछ और भी कम परिस्पन्दन को । यदि आत्म-प्रदेशों में परस्पर सम्बन्धविशेष का अभाव हो तो एक प्रदेश के चलने पर दूसरे प्रदेश का संचलन अवश्यम्भावी नहीं होगा । जैसे गाय और पुरुष ये दोनों सम्बन्धरहित स्वतंत्र व्यक्ति हैं, अतः गाय के चलायमान होने पर पुरुष का चलायमान होना आवश्यक नहीं है । इसलिये गाथा में स्पष्ट कहा है कि कार्यद्रव्याभ्यास ( कार्यद्रव्य की समीपता) और परस्पर प्रवेश के कारण प्रदेशों में योगों की विषमता होती है--- कज्जन्भासन्नोन्नप्पवेस विसमीकयपएसं । शंका -- ( उक्त समाधान के आधार पर शंकाकार पुनः अपना तर्क प्रस्तुत करता है कि ) जिन प्रदेशों के साथ लोष्ट आदि का आघात होता है, उन प्रदेशों में वेदना की अधिकता होना संभव है, क्योंकि वह उसका कारण है। किन्तु जिन प्रदेशों के द्वारा घट आदि उत्पाटन क्रिया होती है, उन प्रदेशों में वीर्य का उत्कर्ष भी हो, यह संभव नहीं है, क्योंकि उस उत्पाटन क्रिया के वे प्रदेश कारण नहीं हैं, प्रत्युत घट उत्पाटन की इच्छा से उत्पन्न जो घटोत्पाटन प्रवृत्ति रूप वीर्यविशेष है, उसी के द्वारा ही घटोत्गटन क्रिया की उत्पत्ति होती है । इसलिये कार्यद्रव्य की निकटता से वीर्य का उत्कर्ष होता है, यह कथन अयुक्त है । समाधान -- यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि औदारिक आदि वर्गणाओं के ग्रहण आदि के आश्रयभूत वीर्य का ही यहाँ अधिकार है और उस वीर्य के उत्कर्ष में कार्यद्रव्य की निकटता ही कारण है । एकप्रदेशरूपता को प्राप्त हुई वे वर्गणाएं ग्रहण आदि की विषयरूपता को प्राप्त ही हैं, इसलिये जिन प्रदेशों में वे साक्षात् सन्निहित हैं अर्थात् सम्बद्ध या समीपवर्ती हैं, उनमें कार्य रूप द्रव्य के ग्रहण आदि में वीर्य का उत्कर्ष होता है और परम्परा से सन्निहित प्रदेशों में वीर्य का अपकर्ष । वाह्य प्रयत्न के उन अवयवों से संबद्ध उत्कर्ष में तो उन अवयवों से सम्बद्ध क्रियाविशेष की इच्छा आदि नियामक है और दूसरे प्रदेशों में उनकी विषमता का कारण उनके सम्बन्ध
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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