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________________ श्रावक दृष्टांत हो जा। .. रुघनाथजी ने जयमलजी से कहलवाया- जैसे विवाह तो साहूकार के बेटे का और प्रशंसा दुपटे की, वैसे ही साधु, साध्वी तो तुम्हारे लेगा । और संप्रदाय भीखणजी का कहलाएगा। ये समाचार सुनकर जयमलजी के विचार बदल गए । तब जयमलजी ने कहाभीखणजी ! मैं तो गले तक डूब गया हूं। आप जैसे पंडितों से क्या छिपा है । आप अच्छी तरह से संयम पालो। ६. बड़ा कर्म है नाम का जयमलजी जयपुर आए तब परसराम कूकरे ने चतुर्मास की बिनती की। तब जयमलजी ने कहा- हमारा चतुर्मास होने से दर्शनार्थ अनेक भाई बहन आयेंगे । कुछ दुर्बल व्यक्ति भी आशा लेकर आएंगे। अतः तुम्हारे से यह काम नहीं जमेगा।' इसलिए यहां चतुर्मास करने का अवसर नहीं है। तब परसराम बोला - यह हजार रुपयों की थैली आपके पट्ट के नीचे लाकर रखी है और चाहिए तो भी रुकावट नहीं, पर चतुर्मास यहां करो। उसके बाद जयमलजी ने जयपुर चतुर्मास किया। सांमीदासजी ने भी जयपुर में चतुर्मास किया । पर्युषण संवत्सरी के समय पौषधों की खूब खींचातान प्रारंभ हुई। कई तो जयमलजी की तरफ ले जाते हैं, कई सांमीदासजी की तरफ ले जाते हैं ऐसा करते-करते सौ पौषध तो जयमलजी के यहां हुए और सौ पौषध ही सांमीदासजी के यहां हुए। शाम के समय एक भाई पौषध करने के लिए आया । तब उसे खींच कर सामीदासजी की तरफ ले गए । सवेरे गिना तो जयमलजी के यहां तो सौ पौषध हुए और सांमीदासजी के एक सौ एक हुए । तब जयमलजी बोले धर्म तो छ जिम छः, बडो कर्म है नाम को। एक भाया ने खांचतां, सिक्को रहि मयो सांम को । ७. समझंगा, एक खरगोश अधिक मारा नगजी जाति का गूजर था। वह घर छोड़ कर साधु बना। गुरु शिष्य विहार करते हए करेड़े गांव आ रहे थे। मार्ग में एक चोर आ धमका। उसने गुरु के कपड़े तो छीन लिए और नगजी के छीनने लगा। तब नगजी बोला- तेरे पास तलवार है मुझे लोह का स्पर्श करना नहीं है इसलिए शस्त्र को अलग रख दे। तब उसने शस्त्र दूर रख दिया। वस्त्र लेने के लिए आगे बढ़ा। तब नगजी ने चोर के दोनों बांहे पकड़ी और उसे पीटना प्रारंभ किया तब उसके गुरु बोले- अरे ! अनर्थ कर रहा है । मनुष्य को मार रहा है। . ....: तब नगजी बोला- ऐसे साधुओं को लूटा जाएगा तो विचरेंगे कैसे ? मैंने तो घर में ही बहुत खरगोश मारे थे समझूगा एक खरगोश और मारा। प्रायश्चित्त रूप में एक तेला ले लूंगा पर इसको तो नहीं छोडूंगा। गुरु ने बहुत कहा मार मत । । तब कमर (कटि) बांधने की डोरी से दोनों हाथ पीछे बांध कर गांव के बाहर लाकर छोड़ दिया।
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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