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________________ श्रावक दृष्टात तब वेषधारी बोले--सिरियारी में तो वह भीखण चौर रहता है । यहां आए तो ऐसा पीटें, क्योंकि वह हमारे साधुओं को ले गया। तब बोहराजी ने कहा-साधु को पीटना कहां है । तब कहां - श्रावकों से पीटाएं। तब बोहराजी बोले- श्रावकों से भी पीटाना कहां है ? • भीखणजी साधु नहीं समझते तब उनके श्रावक बोले- ऊपर चलो, ऐसा कहकर ऊपर ले गए। ये देखो, गुलाब ऋषि, बेले-बेले दो-दो दिन के उपवास के बाद पारणा करते हैं। उसमें भी छाछ घोलकर आटा खाते हैं । गुलाब ऋषि बोला--मैं बेले-बेले पारणा करता हूं, छाछ में घोलकर आटा खाता हूं। शीतकाल में एक अंचला/चद्दर औढ़ता हूं, तो भी भीखणजी मुझे साधु नहीं समझते। तब बोहरोजी बोले ---मेरे एक नीला बैल है, तुम तो आटा खाते हो, पर वह तो आटा ही नहीं खाता, सूखा घास ही खाता है। तुम चद्दर ओढ़ते हो, वह तो ओढ़ता ही नहीं है, उघाड़ा रहता है। ऐसे अगर साधु हों, तो उसको भी साधु कहा जाए। तब गुलाब ऋषि बोला - देखो, देखो मुझे ढोर कहते हैं। ___तब बोहराजी बोले-मैंने तो ढोर नहीं कहा -- तुम अपने मुख से हीं कह रहे हो। आने का कहना कहां है ? ___ इतने में फतेहचन्द वेषधारी बोला-चर्चा करनी है तो मेरी तरफ आ। तब बोहराजी बोले-आने का कहना कहां है ? 'मिच्छामि दुक्कडं लो'। उनके पास गया। स्थानक को अधूरा लीपा हुआ देखकर बोले-पूरा लीपाया नहीं क्या ? तब वह बोला - मैंने कब लीपाया है ? गृहस्थों ने लीपा है । इस प्रकार सदोष आधाकर्मी का सेवन करते हैं और माया करते हैं । ऐसे व्यक्तियों को पहचानते हैं उन्हें उत्तम जीव समझना चाहिए। १३. ऐसा प्रश्न तो कभी नहीं सुना। स्वामीजी के श्रावकों ने दिल्ली की तरफ के वेषधारियों से प्रश्न पूछा-नव पदार्थों में जीव कितने और अजीव कितने ? तब वह वेषधारी बोला-पूज्य बुलाकीदासजी को देखा, पूज्य हरिदासजी को देखा, इत्यादिक अनेक नाम लिये। बड़े-बड़े मोटे पुरुषों को देखा, पर नव पदार्थ में जीव कितने और अजीव कितने ? ऐसा अडबंग/विचित्र प्रश्न तो कभी नहीं सुना। कहो तो मैं जीव के १४ भेद बतलाऊं, कहो तो अजीव के १४ भेद बतलाऊं, कहो तो पुण्य के ९ भेद बतलाऊं, कहो तो पाप के १८ भेद बतलाऊं यावत् कहो तो मोक्ष के चार भेद बतलाऊं पर नव पदार्थ में जीव कितने ? और अजीव कितने ? ऐसा प्रश्न तो कभी नहीं सुना। इस प्रकार पढ़े-लिखे (पण्डित) कहलाते हैं, पर नव पदार्थ की पहचान नहीं।
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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