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________________ २०२ भिक्खु दुष्टांत २०३. इसलिए बरजते हैं स्वामीजी के पास अथवा उनके साधुओं के पास लोग व्याख्यान सुनने आते, उन्हें अमुक संप्रदाय के साधु बरजते । तब स्वामीजी ने एक दृष्टांत दिया - रयणादेवी ने जिनऋषि और जिनपाल को तीन दिशाओं के बगीचों में जाने की मनाही नहीं की, केवल दक्षिण दिशा के बाग में जाने की मनाही की । वह झूठ बोली, उसने भय दिखलाया वहां जाने पर सांप काट खाएगा। उसने सोचा, 'यदि ये दक्षिण के बगीचे में जायेंगे तो मेरी क्रूरता को जान लेंगे, मेरी ठगाई प्रगट हो जाएगी ।' यह सोच उसने दक्षिण के बगीचे में जाने की मनाही की । इस प्रकार अमुक संप्रदाय के साधु बाईस टोलों, चौरासी गच्छों तथा ३६३ पाषण्डियों के पास जाने की प्रायः मनाही नहीं करते, किंतु शुद्ध साधुओं के पास जाने की मनाही करते हैं । कारण कि भीखणजी के पास जाने पर वे हमें अशुद्ध मान लेंगे और भीखणजी हमारे श्रावकों को अपने पक्ष में कर लेंगे, इसलिए ये अपने श्रावकों को बरजते हैं । २०४. स्वामीजी बोले अमुक सम्प्रदाय के साधु लोगों में साधुओं के प्रति विरोध-भाव पैदा करते थे । तब स्वामीजी बोले - " अतीत में भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों को बहकाया और हा साधुओं का विश्वास मत करना।" उसके कहने से उसके पुत्रों ने भी साधुओं को बुरा मान लिया। बाद में वे साधुओं से मिले, तब वे अपने पिता को मिथ्याभाषी जान कर मुनि बन गए । इसी प्रकार अमुक-अमुक संप्रदाय के साधु साधुओं को बुरा बतलाते हैं, परन्तु जो उत्तम मनुष्य होते हैं, वे साधुओं के संपर्क में आ, उनकी वास्तविकता को पहिचान ठीक स्थान पर आ जाते हैं । २०५. 'ठाने' नहीं, खाने के लिए अमुक संप्रदाय के अच्छे-अच्छे स्थान देखकर 'ठाने' बैठ जाते थे - स्थिरवास कर लेते थे । तब स्वामीजी ने कहा - "ये 'ठाने' नहीं बैठते हैं, खाने बैठते हैं । " असली स्थिरवास तो अमीचंदजी का है। सं० १८४७ में मारवाड़ में महामारी फैली । तब दूसरे स्थिरवास वाले चतुर्मास में पदयात्रा कर विहार कर गए और अमीचंद जी चतुर्मास में और पर्युषणों में भाद्र कृष्णा चतुर्दशी के दिन रात के समय बाजरी से भरी हुई गाड़ी के ऊपर बैठ कर गए। मार्ग में प्यास लगी तब अनछना सजीव जल जाट के हाथ से पिया । इस दृष्टि से असली स्थिरवास तो अमीचंदजी का था सो वे पैरों से नहीं चले । २०६० सब एक हो जाएं किसी ने स्वामीजी से कहा - " आप और अन्य संप्रदाय के साधु एक हो जाएं ।” तब स्वामीजी ने पूछा - "तुम महाजन हो, सो महाजन और गैर महाजन एक हो सकते हो या नहीं ?"
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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