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________________ दृष्टांत : १९७-१९८ स्वामी और रंगुजी ने एक साथ दीक्षा ली । जिन-मार्ग का बहुत उद्योत हुआ। फिर कुछ दिनों बाद रामजी स्वामी ने दीक्षा ली। शामजी खेतसीजी स्वामी से दीक्षा-पर्याय में बड़े थे और रामजी छोटे थे। कुछ समय बाद सामजी और रामजी का सिंघाड़ा बनाया। वे अलग विहार कर स्वामीजी के दर्शन करने आए। तब खेतसीजी स्वामी ने सामजी के बदले रामजी को वंदना की, क्योंकि वे दोनों ही एक जैसे लग रहे थे। तब रामजी ने कहा- 'मैं रामजी हूं, सामजी तो वे हैं।' यह घटना बहुत वार घट जाती। तब स्वामीजी ने अपनी निर्मल मति से कहा-'रामजी ! तुम पहले खेतसीजी को वंदना किया करो। तब खेतसीजी अपने आप जान लेगा कि जो ये खड़े हैं, वे सामजी हैं । ऐसी थी निर्मल प्रज्ञा स्वामीजी की। १६७. जो ठंठी रोटो छोड़े, वह लड्डू भी छोड़े कोटा वाले आचार्य दौलतरामजी के सम्प्रदाय के चार साधु वर्धमानजी, बड़ो रूपजी, छोटो रूपजी सूरतोजी स्वामीजी के संघ में दीक्षित हो गए। छोटा रूपजी बोला- 'मुझे ठन्डी रोटी नहीं रुचती। तब स्वामीजी ने आहार का संविभाग किया और प्रत्येक ठंडी रोटी पर एक-एक लड्डू रख दिया और कहा ---'जो ठंडी रोटी छोड़े, वह लड्डू भी छोड़ दे। जो गर्म रोटी लेगा, वह लड्डू नहीं ले पाएगा।' तब सबने दीक्षा-पर्याय के क्रम से अपना-अपना विभाग ले लिया। किसी ने ठंडी या गरम की चर्चा ही नहीं की। १९८. तड़क कर क्यों बोलते हो? जाढण गांव में छह साधुओं के साथ स्वामीजी पधारे । उस गांव में एक राजपूत के घर मृत्युभोज था। वहां किसी सम्प्रदाय के दो साधु आए और मृत्यु-भोज वाले घर ' से लपसी ले आए । स्वामीजी के साधुओं से भी लोगों ने कहा-'दूसरे साधु मृत्यु-भोज वाले घर से लपसी लाए हैं, तुम भी वहां से ले आओ।" तब साधुओं ने कहा-"हम मृत्यु-भोज वाले घर से भिक्षा नहीं ला सकते।" साधुओं ने स्थान पर आकर स्वामीजी से सारी बात कही । तब स्वामीजी ने सोचा'हम पाली जा रहे हैं, कोई व्यक्ति व्यर्थ ही हमारा नाम इस घटना के साथ जोड़ेगा।' यह सोचकर स्वामीजी ने उन साधुओं के पास जाकर पूछा-'तुम मृत्युभोज वाले घर से लपसी लाए या नहीं ?' तब वे बोले-'तुम क्यों पूछते हो ? क्या तुम्हारे और हमारे भोजन-पानी का सम्बन्ध है ?' स्वामीजी बोले---- 'तुम भी पाली जा रहे हो और हम भी पाली जा रहे हैं । सो लपसी लाए तो तुम और कोई नाम लेगा हमारा, इसलिए हम पूछते हैं । हमारे पात्र तुम देख लो और तुम्हारे पात्र हमें दिखला दो। __ तब वे तड़क कर बोले....'लाए, लाए और फिर लाए।' तब स्वामीजी बोले....'तड़क कर क्यों बोलते हो? यही कहो कि हमारे लाने की रीति है, इसलिए हम लाए हैं।' इस प्रकार अपनी बुद्धि से यथार्थ कहलवा कर अपने
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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