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________________ दृष्टांत : १४६-१४८ दान-दया का लोप कर दिया। तब स्वामीजी बोले--पर्युषण में कोई याचक को अनाज नहीं देता, आटा नहीं देता । पर्युषण धर्म के दिन हैं । यदि अन्न दान को धर्म मानें तो उन दिनों में दान देना बंद क्यों किया? यह बात तो बहुत पुरानी है। उस समय तो हम थे ही नहीं । फिर यह स्थापना किसने की ? १४६. तुम दुःखी क्यों होते हो? कुछ लोग बोले---भीखणजी तुम्हारे श्रावक किसी को दान नहीं देते । ऐसी तुम्हारी मान्यता है। तब स्वामीजी बोले-किसी शहर में वस्त्र की चार दुकाने थीं। उसमें से तीन व्यापारी किसी शादी में चले गये । पीछे से कपड़ा खरीदने वाले ग्राहक आए। तब जो एक व्यापारी शेष था वह राजी होता है या नाराज? तब वे बोले-राजी तब स्वामीजी बोले-तुम कहते हो भीखणजी के श्रावक दान नहीं देते तो जो दान लेने वाले हैं वे सब तुम्हारे ही पास आएंगे। तुम कहते हो वह धर्म तुम्हीं को होगा। फिर तुम दुःखी क्यों होते हो और निंदा क्यों करते हो ? ऐसा कह उन्हें हतप्रभ कर दिया । वे वापस उत्तर नहीं दे सके। १४७. संलेखना करनी पड़ेगी स्वामीजी के नई दीक्षा लेने के कुछ वर्षों बाद तीन स्त्रियां दीक्षा लेने को तैयार हुई । तब स्वामीजी बोले--तुम तीनों साथ में दीक्षा लेती हो और कदाचित् एक का वियोग हो जाए तो फिर तुम दो कैसे रह पाओगी, क्योंकि मात्र दो साध्वियों का रहना सम्मत नहीं है । इसलिए तुम्हें संलेखना (समाधि-मरण की तैयारी के लिए की जाने वाली तपस्या) करनी पड़ेगी । तुम्हारा मन हो तो दीक्षा लेन।। इस प्रकार उन्हें यह स्वीकार करा कर उन तीनों को साथ में दीक्षा दी। बाद में अनेक साध्वियां हो गई। पर इस विषय में प्रारम्भ से ही स्वामीजी की नीति बहुत उदात्त और विशुद्ध थी। . १४८. मूल-मूल और प्रासंगिक-प्रासंगिक दया के विषय में स्वामीजी ने तीन दृष्टांत दिए--चोर, हिंसक और व्यभिचारीइन तीनों को साधुओं ने समझाया । ये पापमय प्रवृत्ति कर रहे थे, उन्हें निष्पाप बना दिया। यह जिन धर्म की दया का रहस्य है। हे भव्य जीवो ! तुम जिनधर्म को पहचानो। (१) किसी माहेश्वरी की दूकान में साधु ठहरे। रात के समय वहां चोर आए। उन्होंने दूकान के दरवाजे खोल दिए । साधु बोले-तुम कौन हो? तब वे बोले-हम चोर हैं । साहूकार ने हजार रुपयों की थैली भीतर रखी है । उसे हम ले जाएंगे। तब साधुओं ने उपदेश दिया-चोरी का फल बहुत बुरा होता है। भविष्य में नरक और निगोद का दुःख भुगतना पड़ेगा। इस प्रकार बुराई का विश्लेषण कर उसे समझाया-इस धन का उपयोग सब करेंगे और इसका परिणाम तुम्हें भुगतना पड़ेगा।
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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