SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० भिक्खु दृष्टांत ७६. दोनों सच एक ही बड़े संप्रदाय के अवान्तर संप्रदायों में बंटे हुए साधु परस्पर एक दूसरे को झूठा बतलाते थे । तब स्वामीजी बोले – “ कथनी की दृष्टि से दोनों सच हैं ।" वे भी झूठे हैं इस दृष्टि से दोनों सच बोल रहे हैं । ७७. चार अंगुल वस्त्र खण्ड के लिए पादू में एक भाई ने कहा- "हेमजी स्वामी की चादर प्रमाण से बड़ी लग रही है । तब स्वामीजी ने लम्बाई और चौड़ाई दोनों ओर से नाप कर उसे दिखा दी । वह प्रमाणोपेत निकली । तब स्वामीजी ने उसे बहुत उलाहना दिया । आपने कहा "चार आंगुल के वस्त्र-खण्ड के लिए क्या हम अपना साधुपन खोएंगे ? क्या तुम हमें इतने भोले समझ रहे हो ? तुम्हें इतनी ही प्रतीति नहीं है तो कोई साधु यदि मार्ग में सजीव जल पी ले या और कुछ कर ले, तो तुम कहां-कहां उसके पीछे जाओगे ? इस प्रकार उसे बहुत कड़ी चेतावनी दी । तब वह हाथ जोड़ बोला - "मुझे झूठा ही संदेह हो गया, आप क्षमा करें ।” ७८. इसमें शंका की क्या बात ? तेरापंथ - दीक्षा से पूर्व स्वामीजी अपने गुरुजी के साथ गोचरी के लिए गए । एक भाई चरखा कात रहा था, उसके हाथ से आहार का दान लिया । तब गुरुजी बोले - " भीखणजी ! क्या शंका हुई ?” तब स्वामीजी बोले - " साक्षात् अकल्पनीय आहार का दान लिया, उसमें फिर शंका की क्या बात ? " तब गुरुजी बोले - " भीखणजी ! दृष्टि गहरी रखनी चाहिए। पहले तुम्हारे जैसा एक नया शिष्य गुरु के साथ गोचरी गया था। अकल्पनीय आहार लेते समय उसने गुरु को वरजा था । तब गुरु ने वह आहार नहीं लिया । फिर किसी समय जंगल में विहार करते समय उसे बहुत प्यास लगी । उसने गुरु से कहा “मुझे बहुत प्यास लगी ।' गुरु ने कहा -- " साधु का मार्ग है, दृढ़ता रखो। पर शिष्य प्यास से छटपटा रहा था। उसने सजीव जल पी लिया। उसे बड़ा प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ । अन्यथा थोड़े प्रायश्चित में ही उसका काम निपट जाता ।" तब स्वामीजी ने सोचा - "इनकी दृष्टि ही ऐसी है ।" ७६. साहूकार - दिवालिया कुछ साधु कहते हैं- "अभी पांचवां अर है, पूरा साधुपन नहीं पाला जा सकता । तब स्वामीजी बोले - " ऋण पत्र साहूकार और दिवालिया दोनों के लिए लिखा जाता है— जब ऋण दाता मांगेगा तब तुरन्त रुपये लौटा देंगे । उसमें कोई आपत्ति नहीं करेंगे । चमकते हुए खरे रुपए लेंगे ।" "पर साहूकार और दिवालिया का पता तो वापस मांगने पर ही चलता है । साहूकार ब्याज सहित लौटा देता है और दिवालिया मूल से भी मुकर जाता है । " इसी प्रकार भगवान् ने सूत्र का निरूपण किया, उसके अनुसार जो चलता है वह साधु और पांचवें अर का नाम लेकर जो उसके अनुसार नहीं चलता वह असाधु है ।
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy