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________________ सोलह बिना निर्जरा नहीं होती' (१२०), 'धान मिट्टी की तरह लगने लगे तब संथारा कर लेना चाहिए', (१२१) 'आडम्बर न रखने से ही महिमा है' (१२५), 'साधु गृहस्थ के भरोसे न रहे', (२६०-२६१), 'जिस चर्चा से भ्रम उत्पन्न हो वैसी चर्चा नहीं करनी चाहिए' (२५६) आदि आदि । उनकी दृष्टि भविष्य को भेदती। वे बहुत आगे की देखते । उनका कहना था छिद्र से दरार होती है । पहले कोंपल होती है और फिर वृक्ष। एक बार किसी ने कहा : 'आप काफी वृद्ध हो चुके हैं। अब बैठे-बैठे प्रतिक्रमण क्यों नहीं करते ?' स्वामीजी बोले 'यदि मैं बैठ कर प्रतिक्रमण करूंगा तो सम्भव है बाद वाले लेटे-लेटे करें।' (२१२) अहिंसा के क्षेत्र में उन्होंने जितना सोचा, विचारा, मनन किया, मंथन किया उसकी अपनी एक निराली देन है । 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना के वे एक सजीव प्रतीक थे । 'छहों ही प्रकार के जीवों को आत्मा के समान मानो' --- भगवान की यह वाणी उनकी आत्मा को भेद चुकी थी। अहिंसा विषयक कितने ही सुन्दर चिंतन इस पुस्तक में हैं। स्वामीजी से किसी ने पूछा-'सूत्रों में साधु को वायी --रक्षक कहा है । जीवों की रक्षा करना उसका धर्म है।' स्वामीजी ने कहा-'त्रायी ठीक ही कहा है। उसका अर्थ है जीव जैसे हैं उन्हें 'वैसे ही रहने देना, किसी को दुःख न देना ।' (१५०) उस समय एक अभिनिवेश चलता था-'हिंसा बिना धर्म नहीं होता।' इस बात की पुष्टि में उदाहरण देते-'दो श्रावक थे। एक को अग्नि के आरम्भ का त्याग था, दूसरे को नहीं । दोनों ने चने खरीदे। पहला उन्हें यों ही फांकने लगा, दूसरे ने उन्हें भूनकर भूने बना लिए। इतने में साधु आये। पहले के पास कच्चे चने होने से वह बारहवां व्रत निष्पन्न नहीं कर सका। दूसरे ने भूने बहरा कर बारहवां व्रत निष्पन्न किया । तीव्र हर्ष के कारण उसके तीर्थङ्कर गोत्र का बन्धन हुआ। यदि अग्नि का आरम्भ कर वह भूने नहीं बनाता तो इस तरह उसके तीर्थङ्कर गोत्र का बंधन कैसे होता ?' स्वामीजी ने उत्तर में दृष्टांत दिया- 'दो श्रावक थे। एक ने यावज्जीवन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। दूसरा अब्रह्मचारी ही रहा। उसके पांच पुत्र हुए। बड़े होने पर दो को वैराग्य हुआ। पिता ने हर्षपूर्वक उसको दीक्षा दी। अधिक हर्ष के कारण उसके तीर्थङ्कर गोत्र का बन्धन हुआ। यदि हिंसा में धर्म मानते हो तो सन्तानोत्पत्ति में भी धर्म मानना होगा । हिंसा बिना धर्म नहीं होता । तब तो अब्रह्मचर्य बिना भी धर्म नहीं होना चाहिए ?' _ किसी ने कहा- 'एकेन्द्रिय मार पंचेन्द्रिय जीव पोषण करने में धर्म है।' स्वामीजी बोले-'अगर कोई तुम्हारा यह अंगोछा छीनकर किसी ब्राह्मण को दे दे तो उसमें उसे धर्म हुआ कि नहीं ?' वह बोला-'इसमें धर्म कैसे होगा ?' स्वामीजी ने पुनः पूछा-'कोई किसी के धान के कोठे को लुटा दे तो उसे धर्म होगा या नहीं ?' उसने कहा-'इसमें धर्म कैसे होगा ?' स्वामीजी बोले-'धर्म क्यों नहीं होगा ?' वह
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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