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________________ चौदह जड़भरत-दूसरों के सिखाए हुए। जो व्यक्ति जैसा होता उसके अनुरूप हेतु, तर्क, बुद्धि-कौशल, दृष्टांत अथवा सूत्र-साक्षी से स्वामीजी चर्चा करते या उत्तर देते । लिफाफा देखकर मजमून समझ लेना यह उनकी बुद्धि की सबसे बड़ी विशेषता थी और इस विशेषता के कारण वे आगन्तुक व्यक्ति के मानस का चित्र पहले से ही खींच लेते और अपनी औत्पातिक बुद्धि से युक्ति-पुरस्सर प्रत्युत्तर दे चमत्कार-सा उत्पन्न करते । इन दृष्टान्तों में उनकी इस विशेषता के अनेक अद्भुत चित्रण मिलते हैं । __उनकी वाणी सहज ज्ञानी की वाणी है । वह स्वयं स्फुरित है । उसमें अध्यात्म, संवेग तथा वैराग्य-रस भरा हुआ हैं । निर्मल ज्ञान-रश्मियों का प्रकाश है । स्पष्ट और सही सूझ तथा दृष्टि है। उसमें जैन दर्शन के मौलिक स्वरूप पर दिव्य प्रकाश है तथा क्रांत वाणी की तीव्र भेदकता और उद्बोधन है। स्वामीजी महान् धर्मकथी थे। छोटे-छोटे दृष्टांतों के सहारे गूढ़ दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर उन्होंने इतने सुबोध और सरल ढंग से दिया है कि उन्हें पढ़कर हृदय विस्मयविमुग्ध हो जाता है। स्वामीजी की सी दृढ़ता बहुत कम देखी जाती है। न्याय-मार्ग पर चलते हुए वे विघ्न-बाधाओं से कभी नहीं घबड़ाए। वे दुर्दान्त योद्धा का सा मोर्चा लेते हैं और कभी पीछे नहीं ताकते। शिष्यों के साथ उनका व्यवहार जितना वात्सल्यपूर्ण होता उतना ही अवसर पर कठोर भी । अनुशासन के समय यदि वे वज्रादपि कठोर थे तो अन्य प्रसंगों पर कुसुमादपि मृदु भी। चर्चा के समय वे दुर्भद्य व्यूह से देखे जाते हैं । सिद्धांत-बल, बुद्धि-बल, तर्क-बल, हेतु-बल, परम्परा-बल -इनकी अनोखी छटा सूर्य रश्मियों की तरह एक चकाचौंध पैदा कर देती है । गंभीर ज्ञान और लक्ष्य-भेदी गिरा समुद्र की ऊर्मियों की तरह छल-छल निनाद करते हुए देखे जाते हैं । पैनी तर्क-शक्ति और अवसर-अनुकूल व्यङ्गोक्ति तीक्ष्ण तीर की तरह सीधा लक्ष्य-भेद करती सी लगती है। स्व-समय और पर-समय का सूक्ष्म विवेक उनकी लेखनी द्वारा जैसा प्रगट हुआ है वैसा अन्यत्र नहीं देखा जाता । जैन धर्म को मलिन करने वाली मान्यताओं और आचार का धान और तुस की तरह पृथक्करण जैसा उन्होंने किया अन्यत्र दुर्लभ है । मिथ्या अभिनिवेशों और मान्यताओं पर उनके प्रहार तीव्र रहे। उनका बल शुद्ध आचार पर रहा। केवल वेष के वे जीवन भर विरोधी रहे। इसके लिए उन्हें बड़े कष्ट सहने पड़े पर वे कभी पश्चात्पद नहीं हुए । शुद्ध श्रद्धा और आचरण के साथ संयमी का प्रमाणपुरस्सर वेष हो, यदि साधु का बाना धारण किया हो तो उसके साथ शुद्ध श्रद्धा और आचार भी हो-यही उनका प्रतिपाद्य रहा । कृत्रिम ब्राह्मणी' (११६), 'खोटा सिक्का' (२९५), छिद्रवाली नौका' (३०१), 'लूकड़ी का चौधरपन' (२९८) आदि दृष्टांत उनकी इस भावना के प्रतीक हैं। - उन्होंने एक व्यंग किया है : 'पति के मरने पर स्त्री को उसकी अस्थी के साथ बांधकर जला दिया गया और उसे सती घोषित कर दिया गया । यदि कोई इस तरह • जबरदस्ती सती की गई स्त्री का स्मरण कर प्रार्थना करे हे सती माता!
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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