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________________ वरंगचरिउ दूसरी पीढ़ी तक और एक युग से दूसरे युग तक भेजा है। वैद्यक, ज्योतिष, व्यापार-वाणिज्य और नीति विषयक अनुभवों का छन्द के बल पर ही सर्वग्राह्य बनाया गया है। काव्य में छन्द का व्यवहार विषयगत मनोभावों के संचार के लिए किया गया है। लय की अणिमा और महिमा ही छन्द है। नाद की गतियां जब लयमय बनती है, तब छन्द जन्म लेता है। अर्थ काव्य का प्राण है, तो छन्द ऊर्जा है। वस्तुतः छन्द लयात्मक, नियमित तथा अर्थपूर्ण वाणी है। छन्द काव्य की नैसर्गिक आवश्यकता है। छन्दोमयी रचना में सम्प्रेषणीयता और लयान्विति का योग रहता है, जिससे उसमें जीवन को आनंदित करने की शाश्वत सम्पदा मुखर हो उठती है। छन्दोबद्ध वाणी आत्मा को चमत्कृत कर उसे उल्लास में निमग्न कर देती है, ताकि जीवन की समूची विषमता ओर विषादमयता का सर्वथा विसर्जन हो।' अपभ्रंश कथात्मक प्रबन्ध काव्यों व चरित्रों की एक टकशाली शैली है। जिसके अनुसार रचना को अनेक संधियों (परिच्छेदों) में विभाजित किया जाता है। प्रत्येक संधि में अनेक कडवकों का समावेश होता है और प्रत्येक कडवक में अनेक यमक और अन्त में एक घत्ता छन्द रखा जाता है। जो संधि के आदि से अन्त तक एक सा रहता है और उसका स्वरूप संधि के प्रारंभ में ही प्रायः ध्रुवक के रूप में स्पष्ट कर दिया जाता है। कभी-कभी प्रत्येक कडवक के प्रारंभ में एक 'दुवई' छन्द भी सम्बद्ध रहता है। जिसके अन्य नाम ध्रुवा, ध्रुवक या छद्दणिया भी है। घत्ता का अर्थ है जो विभक्त करे। पिंगल के अनुसार घत्ता में 31 मात्राएं होती है। यति 10 और 8 पर तथा 13 मात्रा, अन्त में दो लघु होना चाहिए। आचार्य हेमचन्द्र ने 'छद्दणिया' का लक्षण इसी प्रकार दिया है जहां 10 और 8 पर यति, 13 मात्राओं के साथ अन्तिम दो लघु एवं दुवई का एक भेद छड्डणिया माना है। मुनि नयनंदी ने अपने सुदंसणचरिउ में काव्य की विशेषता बताते हुए कहा है : 'णिरू छंदाणुवट्टि कइकव्वु व'' अर्थात् काव्य की विशेषता उसके छन्दानुवर्ती या नाना छन्दोत्मक होने में है। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश वाङ्मय में छंदशास्त्र लेखन की चार प्रमुख शैलियाँ उपलब्ध है। यथाः 1. सूत्रशैली-पिंगलाचार्य तथा आ. हेमचन्द्र द्वारा व्यवहृत। 1. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ. 5272. जैन हिन्दी काव्य में छन्दोयोजना, आदित्य प्रचण्डिया (जैन विद्या-अप्रेल, 1987) जम्बू. च. में छन्दयोजना, दीति, प्र. 83. सुदंसणचरिउ-मुनिनयनन्दि, सम्पा. हीरालाल जैन, प्राकृत एवं जैन विद्या शोध संस्थान, वैशाली, 1970, 2.6.7 4. हिन्दी साहित्य कोष, प्रथम-भाग, संपा. धीरेन्द्र वर्मा, पृ. 291 (जैन विद्या-अप्रेल,1987), जम्बू, च. की छन्दयोजना, पृ.56, श्रीमती अलका प्रचण्डिया दीति
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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