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________________ वरंगचरिउ दिखाई देता है, कहीं मयूर मधुर शब्द करते हैं। इस तरह कुमार जंगल में भूलता-भटकता भ्रमण करता है। आगे एक बाघ से हाथी की सहायता द्वारा अपने प्राणों की रक्षा करता है। द्वितीय संधि-द्वितीय संधि का प्रारंभ जिनेन्द्र देव का स्मरण पूर्वक होता है। जंगल में भ्रमण करते हुए आगे बढ़ता है, जहां एक यक्षिणी अजगर से उसकी रक्षा करती है और उसके स्वदार संतोषव्रत की परीक्षा कर संतुष्ट होती है। वन में भटकते हुए वरांग को भील बलि के लिए पकड़कर ले जाते हैं, किन्तु सर्प द्वारा दंशित भिल्लराज के पुत्र का विष दूर करने से उसे मुक्ति मिल जाती है। वृक्ष पर रात्रि व्यतीत कर प्रातः सागरबुद्धि सार्थपति से मिलता है। सार्थपति के साथ चलने पर मार्ग में बारह हजार सवर डाकुओं के रूप में मिलते हैं। सार्थवाह का उन सवर डाकुओं से युद्ध होता है। सार्थवाह की सेना युद्ध से भागती है। इससे सागरबुद्धि को बहुत दुःख होता है। संकट के समय वरांग ने सार्थवाह से निवेदन किया कि आप चिन्ता न करें, मैं सब सवरों को परास्त करता हूँ। कुमार ने डाकुओं को परास्त किया और सागरबुद्धि का प्रिय होकर सार्थवाहों का अधिपति वन ललितपुर में निवास करने लगा है। तृतीय संधि-इधर घोड़े का पीछा करने वाले राजपुत्र, सैनिक और हाथी-घोड़े लौट आये, वरांग का कहीं पता न चला। इससे धर्मसेन के साथ गुणदेवी बहुत अधिक शोकमग्न हो जाती है। राजा ने गुप्तचरों को कुमार का पता लगाने के लिए भेजा। वे कुएं में गिरे हुए मृत अश्व को देखकर और कुमार के उपकरण को लेकर वापिस लौटे। उन्हें खोजने पर भी कुमार का कोई पता न लगा। अतः उनके अन्तःकरण में करुण विलाप का समुद्र उमड़ पड़ा। ___ आगे वरांग की वीरता का वर्णन आता है। मथुरा के राजा इन्द्रसेन का पुत्र उपेन्द्रसेन था। इस राजा ने एक दिन ललितपुर में देवसेन के पास अपना दूत भेजा और अप्रतिमल्ल नामक हाथी की मांग की। देवसेन द्वारा हाथी न दिये जाने पर रुष्ट हो मथुराधिपति ने उस पर आक्रमण कर दिया। इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन दोनों की सेना ने बड़ी वीरता से युद्ध किया, जिससे देवसेन की सेना छिन्न-भिन्न होने लगी। कुमार वरांग ने आकर देवसेन की सहायता की, जिससे इन्द्रसेन पराजित हो गया। ललितपुर का राजा देवसेन कुमार के बल और पराक्रम से प्रसन्न होकर उसे अपनी पुत्री सुश्री सुनन्दा और आधा राज्य प्रदान करता है। चतुर्थ संधि-एक दिन राजा देवसेन की मनोरमा नाम की पुत्री कुमार के रूप-सौन्दर्य को देखकर आसक्त हो जाती है और विरह से जलने लगती है। मनोरमा कुमार के पास अपना दूत (दासी) भेजती है। पर दुराचार से दूर रहने वाला कुमार इनकार कर देता है। मनोरमा विरहाग्नि से जलने लगती है। वरांग के लुप्त हो जाने पर सुषेण कंतपुर के राज्य कार्य को सम्हालता है। परन्तु वह अपनी अयोग्यताओं के कारण शासन में असफल हो जाता है। उसकी दुर्बलता और धर्मसेन की
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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