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________________ 38 वरंगचरिउ III. कथा-विकास एवं वरंगचरिउ की मूल कथा 1. कथाविकास विश्व के सर्वोत्कृष्ट काव्य की जननी कहानी ही है। कथा के प्रति मानव मात्र का सहज आकर्षण रहा है। फलतः जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें कहानी की मधुरिमा अभिव्यंजित न हुई हो। सत्य तो यह है कि मानव अपने जन्म के साथ कथा को लाया है और वह अपनी जिन्दगी को, कहानी कहता हुआ, समाप्त करता है। मानव विकास की परम्परा में एक ऐसा भी चरण था, जब मनुष्य वनों में ही रहकर पशु-पक्षियों के साहचर्य से अपनी नीरस जीवन यात्रा को सरस बनाता था। तब हरे-भरे पेड़ उसे छाया देते थे, गगनचारी विहग मधुर गीत सुनाकर थकान मिटाते थे और पशु अपनी उल्लासभरी क्रीड़ाओं से उसका मनोरंजन करते थे। इसी सान्निध्य ने मानव को पशु-पक्षियों का मित्र बनाया और कई युगों के बीत जाने पर भी आज का इंसान इन्हें भूल नहीं पाया है। सुसंस्कृत होने पर मानव ने अपने इस स्नेह को सबल बनाने के लिए प्राकृतिक सुषमा को कहानी-साहित्य में एक विशिष्ट उपकरण के रूप में मान्य किया है।' हमारे प्राचीनतम साहित्य में कथा के तत्त्व जीवित हैं। ऋग्वेद में स्तुति के रूप में प्राप्त आख्यान, ब्राह्मण ग्रन्थों में शतपथ ब्राह्मण की पुरुरवा और उर्वशी की कथा, उपनिषद् युग का यमीयाज्ञवल्क्य संवाद तथा सत्यकाम-जावाल, रामायण और महाभारत के आख्यान आदि इसके सबल प्रमाण हैं। इस प्रकार कथासाहित्य की एक प्राचीन परम्परा है। कथासाहित्य की परम्परा में विशेष रूप से उल्लेखनीय कथाग्रन्थ हैं-पंचतंत्र, हितोपदेश, बैताल पंचविंशतिका, सिंहासनद्वात्रिंशिका, शुकसप्तति, वृहत्कथामंजरी, कथासरित्सागर, आख्यानमिनी, जातक कथाएँ आदि। कथा साहित्य-सरिता की धारा के वेग को तीव्र बनाने में जैन कथाओं का विशिष्ट योगदान रहा है। जैनों के मूल आगमों में द्वादशांगी प्रधान है। उनमें नायधम्मकहा, उवासगदसाओ, अन्तगड, अनुत्तरौपपातिक, विपाकसूत्र आदि समग्र रूप में कथात्मक है। तरंगवती, समराइच्चकहा तथा कुवलयमाला आदि अनेकानेक स्वतंत्र कथा ग्रन्थ विश्व की सर्वोत्तम कथा विभूति हैं। यदि अध्ययन विधिवत् तथा इतिहास-क्रम से इस साहित्य का किया जाए तो कई नवीन तथ्य प्रकाश में आयेंगे और जैन कथा साहित्य की प्राचीनता वैदिक कथाओं से भी अधिक पुरानी लक्षित होगी।' 1. जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन, ग्रन्थकर्ता श्रीचन्द जैन, रोशनलाल जैन एण्ड सन्स, चैनसुखदास मार्ग, जयपुर-3, पृा 2. वही, पृ. 28 3. वही, पृ. 28
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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