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________________ 228 वरंगचरिउ अर्थात् बाहरी शरीर का और भीतरी कषायों का, उत्तरोत्तर काय और कषाय को पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हुए भले प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है।' सामायउ (सामायिक) 1/16 ___सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, इष्ट-अनिष्ट आदि विषमताओं में राग-द्वेष न करना बल्कि साक्षी भाव से उनका ज्ञाता द्रष्टा बने हुए समतास्वभावी आत्मा में स्थित रहना अथवा सर्व सावद्य योग से निवृत्ति सो सामायिक है। सावय (श्रावक) 1/15 जो श्रद्धापूर्वक गुरु आदि से धर्मश्रमण करता है, वह श्रावक है। श्रावक तीन प्रकार के होते हैं-पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक। सिखाव्वउ (शिक्षाव्रत) 1/17 ____ जिनके प्रभाव से विशेष श्रुतज्ञान का अभ्यास हो या जिसमें मुनिव्रत पालन करने की शिक्षा मिले, उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं। सिद्ध परमेष्ठी 1/1 ___ आठ कर्मों के बन्धन को जिन्होंने नष्ट किया है, ऐसे आठ महागुणों से सहित, लोकाग्र में विराजमान हैं, जो नित्य एवं कृत-कृत्य, शान्तिमय, निरंजन आदि गुण से युक्त हो गये हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं। सिवगइ (मोक्ष गति) 1/9 ___जहां पर जन्म, जरा, मरण, भय, संयोग, वियोग, दुःख, संज्ञा और रोगादि नहीं होते हैं, वह सिद्धगति कहलाती है। सुक्कझाणुं (शुक्ल ध्यान) 4/22 ___ जिसमें शुचि गुण का सम्बन्ध है, वह शुक्लध्यान है, जैसे मैल हट जाने से वस्त्र शुचि होकर शुक्ल कहलाता है, वैसे ही निर्मल गुणयुक्त आत्म परिणति भी शुक्ल है। सुद्धभाव (शुद्धभाव) 4/20 वीतराग भाव ही शुद्धस्वभाव है। सुहगइ (शुभगति) 1/10 शुभगति दो हैं-देव गति और मनुष्य गति। हरि (नौ-नारायण) 3/4 नौ नारायण इस प्रकार हैं- त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषपुंडरीक, दत्त (पुरुषदत्त), नारायण (लक्ष्मण) और कृष्ण। 1. सर्वार्थसिद्धि, 7/22, पृ. 280 2. सागार धर्मामृत, अधि.-1, श्लोक-15-16
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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