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________________ वरंगचरिउ 225 बिना घात के माँस प्राप्त नहीं होता है, मांस चाहे कच्चा हो या पका हुआ हो या पक रहा हो, निरन्तर उसमें त्रस जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। अतः बुद्धिमान मनुष्यों को मांस-अण्डा कभी नहीं खाना चाहिए। रिउ-दव्वहं (षद्रव्य) 1/10 द्रव्य छह होते हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। द्रव्यों का विवेचन इस प्रकार है जीव द्रव्य-जो चेतना गुण से युक्त होता है, उसे जीवद्रव्य कहते हैं। पुद्गल द्रव्य-जो स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाला है, वह पुद्गल है। धर्म द्रव्य-गति हेतुत्व अर्थात् जो जीवों और पुद्गलों को गमन में उदासीन रूप से सहायक हो, उसे धर्मद्रव्य कहते हैं। जैसे–मछली के गमन में जल सहायक होता है। अधर्म द्रव्य-स्थिति हेतुत्व अर्थात् स्वयं ठहरते हुए जीवों और पुद्गलों को ठहराने में उदासीन रूप से सहायक हो उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं। जैसे-पथिकों को ठहरने में छाया सहकारी है। आकाश द्रव्य-अवगाहन हेतुत्व अर्थात् जो जीवादि द्रव्यों को अवकाश देता है, उसे आकाश द्रव्य कहते हैं। इसके दो भेद-लोकाकाश और अलोकाकाश। काल द्रव्य-वर्तना हेतुत्व अर्थात् जो द्रव्यों को परिणमन में सहकारी हो, उसे कालद्रव्य कहते हैं। रिउरिउ-सावय-वयाइ (श्रावक के बारह-व्रत) श्रावक के बारह व्रत होते हैं-पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। पांच अणुव्रत-1. अहिंसाणुव्रत, 2. सत्याणुव्रत, 3. अचौर्याणुव्रत, 4. ब्रह्मचर्याणुव्रत, 5. परिग्रह परिमाणाणुव्रत। तीन गुणव्रत-1. दिग्वत, 2. देशव्रत और 3. अनर्थदण्डव्रत। . चार शिक्षाव्रत-1. सामायिक, 2. प्रोषधोपवास, 3. भोगोपभोग परिमाणव्रत, 4. अतिथि संविभागवत। रूट्ठझाण-रौद्र ध्यान 1/16 क्रूर आशय व दूसरों को पीड़ा देने के प्रयोजन से किया जानेवाला ध्यान रौद्रध्यान है। वंभचेरू/वंभव्वउ (ब्रह्मचर्यव्रत) 1/16 जो तीनों प्रकार की स्त्रियों को और उनके प्रतिरूप (चित्र) को माता, पुत्री और बहिन के समान देखकर एवं स्त्रीकथा आदि से निवृत्ति है, वही ब्रह्मचर्यव्रत कहलाता है।
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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