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________________ वरंगचरिउ 223 जीव के दया, दानादि रूप शुभ परिणाम पुण्य कहलाते हैं । यद्यपि लोक में पुण्य के प्रति बड़ा आकर्षण होता है, परन्तु मोक्ष की अभिलाषा रखने वाला जीव केवल बन्ध रूप होने के कारण इसे पाप से किसी भी प्रकार अधिक नहीं समझते। इसके प्रलोभन से बचने के लिए हमेशा इसकी अनिष्टता का विचार करते हैं, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि यह सर्वथा पाप रूप ही है । लौकिक जनों के लिए यह अवश्य ही पाप की अपेक्षा बहुत अच्छा है । यद्यपि मुमुक्षु जीवों को भी निचली अवस्था में पुण्य प्रवृत्ति अवश्य होती है पर निदान रहित होने के कारण उनका पुण्य पुण्यानुबंधी है जो परम्परा से मोक्ष का कारण है । लौकिक जीवों का पुण्य निदान व तृष्णा सहित होने के कारण पापानुबन्धी है तथा संसार में डुबाने वाला है। ऐसे पुण्य का त्याग ही परमार्थ से योग्य है । पूय (पूजा) 1/17 अरहंत आदि के समक्ष गंध, पुष्प, धूप, अक्षतादि समर्पण करना यह द्रव्य पूजा है। साथ ही उठ करके खड़े होना, प्रदक्षिणा देना, नमस्कार करना आदि क्रियाएँ करना वचनों से अरहंतादि का स्तवन करना भी द्रव्य पूजा है। अरहंतादि के गुणों का मन से चिन्तन करना भावपूजा है । पोसहु-उववासु (प्रोषधोपवास) 1 / 16 चतुर्दशी और अष्टमी के दिन सर्वदा के लिए व्रतविधान की वांछा से चार प्रकार के आहारों का त्याग करना प्रोषधोपवास है । अर्थात् पहले और आगे के दिनों में एकाशन के साथ अष्टमी और चतुर्दशी के दिन उपवास आदि करना प्रोषधोपवास कहलाता है। बारह अणुविक्ख (बारह अनुप्रेक्षा) 2 / 1 अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ एवं धर्मभावना - इन बारह भावनाओं का बार-बार चिन्तन अनुप्रेक्षाएँ हैं । बलभद्द ( बलभद्र ) 3/4 सभी बलदेव निदान से रहित होते हैं और सभी बलदेव ऊर्ध्वगामी अर्थात् स्वर्ग व मोक्ष के जाने वाले होते हैं । बलदेवों का परस्पर मिलान नहीं होता है तथा एक क्षेत्र में एक ही बलदेव होता है। वह बलदेव नौ हैं - विजय, अचल, धर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नन्दीषेण, नन्दिमित्र, राम (पद्म) और बलराम । भक्ति (भक्ति) 1/9 अरहंतादि के गुणों के प्रति अनुराग ही भक्ति है। भोगोपभोग परिमाण 1/11
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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