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________________ 12 वरंगचरिउ कवि ने अन्य स्थल पर भाषाओं का क्षेत्र प्रतिपादित करते हुए-सौराष्ट्र और त्रवण देश को अपभ्रंश भाषाभाषी प्रकट किया है। साथ ही अपभ्रंश भाषा के क्षेत्र का निर्देश करते हुए मरू (मारवाड़), टक्क (ठक्क), पंजाब का एक भाग भादानक-पंजाब के सेलम जिले भद्रावती देशों में अपभ्रंश के प्रयोग होने का संकेत किया है। महाकवि पुष्पदंत (ई.सं. 965) ने भी अपने महापुराण में संस्कृत और प्राकृत भाषा के साथ अपभ्रंश का भी उल्लेख किया है। उस काल में संस्कृत, प्राकृतादि के साथ अपभ्रंश का भी ज्ञान राजकुमारियों को कराया जाता था। अमरचन्द्र (13वीं सदी) ने अपभ्रंश की गणना प्रसिद्ध 6 भाषाओं में की है। ___अपभ्रंश से संबंधित उपर्युक्त उल्लेखों का अध्ययन करके हमें ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में (द्वितीय शताब्दी तक) अपभ्रंश का अर्थ बिगड़ा हुआ रूप अर्थात् अपाणिनीय शब्द, अपभ्रष्ट एवं विकृत या अशुद्ध शब्द मात्र संज्ञा प्राप्त थी। किन्तु छठी-सातवीं शताब्दी में अपभ्रंश का प्रयोग साहित्यिक भाषा के रूप में प्रचलित हो गया था एवं उनका स्वतंत्र रूप भी विकसित होने लगा था एवं वह दण्डी तथा भामह जैसे साहित्यिकों के द्वारा समर्थन पा चुकी थी। इसप्रकार वह 8वीं शताब्दी में सर्वसाधारण के बोलचाल की भाषा माने जाने लगी और उसका विस्तार सौराष्ट्र से मगध तक हो गया। 11वीं से 13वीं शताब्दी तक के कवियों ने अपभ्रंश को संस्कृत प्राकृतादि के समान ही साहित्यिक भाषा माना। इस तरह अपभ्रंश भाषा एक समृद्ध भाषा बन चुकी थी। यद्यपि साहित्य रचना तो आगे 16-17वीं शताब्दी तक होती रही है। (iv) अपभ्रंश साहित्य 1. काल विभाजन अपभ्रंश साहित्य का विभाजन अत्यन्त कठिन है, फिर भी अध्ययन की सुविधा के लिए अपभ्रंश साहित्य के सम्पूर्ण विकास क्रम को डॉ. शिवसहाय पाठक ने तीन काल खंडों में विभाजित किया है 1. आदिकाल-(ई. सन् के आस-पास से 550 ई. तक), 2. मध्यकाल-(550 ई. से 1200 ई. तक) और 3. मध्योत्तर काल (1200 ई. से 1700 ई. तक)। उक्त विभाजन अध्ययन की दृष्टि से किया गया है1. सौराष्ट्र त्रावणाश्च ये पठन्त्यार्पित सौष्ठवम् । अपभ्रंशवदंशानि ते संस्कृत वचांस्यपि।। काव्य मीमांसा, अ. 7 2. सापभ्रंश प्रयोगः सकलमरुभुवष्टक्क भादानकाश्च। काव्यमीमांसा, अ. 10 3. सक्कउ पायउ पुण अवहंसउ, वित्तउ उप्पाइउ सपसंसउ।।महापुराण 5-18-6 4. संस्कृतं प्राकृतं चैव शौरसेनी च मागधी। पैशाचिकी चापभ्रंशं षड्भाषाः परिकीर्तिताः ।। काव्यकल्पता वृत्ति, पृ. 608 (जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह, पृ. 7) 5. अभीरी भाषापभ्रंशस्था कथिता क्वचिन्मागध्यामपि दृश्यते, काव्यालंकार टीका, 2/12, पृ. 15 6. अपभ्रंश भाषा और व्याकरण, पृ. 45-47
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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