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________________ 179 वरंगचरिउ चतुर्थ सन्धि 1. मनोरमा की विरह व्यथा तब वरांग के लिए राजा रणक्षेत्र में श्रेष्ठता के लिए सम्मान करके आधा राज्य देता है। वरांग गुणों से युक्त, पूर्व कहे हुए वचन रूप परिणमित होता है। छप्पय ।। इस प्रकार श्रेष्ठ नगर में नववधुओं के साथ प्रमोद करते हुए निवास करता है। एक दिन मातुल (मामा) की पुत्री, जिसका नाम कुमारी मनोरमा है, वरांग को रतिरस में आसक्त देखती है और मन में चिंतन करती है कि इसके साथ संसर्ग करना चाहिए। उसका शरीर व्याकुल हो जाता है, स्त्री के चित्त (मन) में कामदेव का बाण पीड़ित करता है, श्वासोच्छवास अति तीव्रवेग से प्रवाहित होती है, शीतल जल का लेपन भी ताप उत्पन्न करता है, शरीर की तड़फड़ाहट (तड़पन) वैसे होती है, जैसे मछली जल के सूख जाने पर होती है। क्या मेरे केश भौरों के समूह के समान नहीं हैं, किसी तरह मेरे प्राणों की रक्षा नहीं हो सकती है। क्या मेरे कुंडल हैं एवं क्या मेरी बिन्दी की शोभा है। वरांग के बिना मुझे सभी लोहा जैसे भासित होते हैं। हाय-हाय क्या मेरा मुख-मंडल है, क्या मेरे कपोल है। मुक्तामणि का हार शीघ्रता से घूमता है, वह भी मुझे सर्प के जैसा भासित होता है। इन उन्नत पयोधर (स्तन) का क्या करना चाहिए, चोली का बंधन ही मानो बंधन है। क्या मेरी करधनी (मेखला) और माला है। मेरे क्या बहुत से वस्त्र हैं एवं क्या मेरा यौवन है। क्या मेरे नूपुर शब्द करते हैं, मानो कामसेवक मारो-मारो कहता इस प्रकार सभी आभूषण शून्य एवं विषनिद्रा तुल्य भासित होते हैं और कोई भी कार्य नहीं सुहाता है। घत्ता-जहां कोयल शब्द करती हो, भद्र (शिष्ट) रूप बनाये गये हो, तोता (कीर) आकाश में स्वतंत्रता से उड़ते हों, जहां श्रेष्ठ सरोवर मानो रत्नाकर हो, जहां वृक्षों पर अनेक पक्षियों की पंक्ति शोभित है। 2. मनोरमा की विरहवेदना वहां वन में नृपकुमारी (मनोरमा) पहुंचती है। शुभप्रकृति युक्त मानो पाप हरण करने वाली
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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