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________________ वरंगचरिउ 167 13. वीरता का स्वरूप हे पृथ्वीपति! पौरुष गया तो क्या कीजिए, लोगों में अपयश की प्राप्ति होगी। यश से रहित अवस्था गृद्ध पक्षी/भेड़िया के समान है, जीते हुए भी दीर्घकाल तक मान छोड़ना होगा। यदि पुनः इसी शासन की प्राप्ति होगी तो लोगों में यश का प्रकाशन होगा अथवा स्वर्ग के देव सुरेन्द्र की स्त्रीतुल्य स्त्री की प्राप्ति होगी। यदि रणभूमि में शुभ मरण होता है तो हे राजन! क्षत्रिय की वृत्ति को धारण कीजिए, जो अनेकों को मरवाता है और अनेक मर जाते हैं। उत्साहपूर्वक कीर्ति (यश) को रखिए, फिर भी मरना होगा तो शुभ गति में जायेंगे। मेरे वचनों को प्रमाणित कीजिये, युद्ध करके शत्रु को रण में नष्ट कीजिये। इस प्रकार के वचनों को सुनकर राजा कहता है-हे मंत्री! तुम्हारे वचन मेरे लिए रुचिकर हैं। इस अवसर पर नगर से नरपति शत्रु-समूह को भगाने के लिए चल पड़ा। इस दुंदुभि (डोढ़) का क्या कारण है एवं क्या पालना करना है। इस प्रकार एक व्यक्ति ने राजा के आने की बात वरांग देव को कही। वीरों का समूह उसके मन में भावित हुआ। देवसेन संग्राम के लिए जा रहे हैं, पीछे कौन जानता है, क्या होगा? घत्ता-तब वरांग वचनों को सुनकर मन में चिंतन करता है यह मेरे मातुल (मामा) है। मैं इनके पुत्र का कार्य करूंगा एवं यह मेरे श्वसुर होंगे। खंडक-इस प्रकार नगर का श्रेष्ठ वणिपति एवं जिनभक्त सागरबुद्धि चिंतन करके फिर वणिक पुत्र को लेकर के गया और नृपति को नमस्कार करके कहता है ____ 14. राजा देवसेन से वरांग का परिचय हे देव! यह किस प्रदेश (प्रान्त) से है, मैं नहीं जानता हूँ किन्तु मेरे धर्मपुत्र के रूप में उपदेशित है। कुछ समय पूर्व इसे वणिक वर्ग ने रखा है। वह दीर्घकाल तक आप सभी की रक्षा करेगा। हे महाराज! यह भद्र पुरुष है, यह अकेला ही शत्रु बल को भग्न करेगा, यह सुन्दर मानव जो श्रेष्ठ योद्धा है, अभी तक छुपा हुआ है, उसे देखो। वचनों को सुनकर राजा नयनों से अवलोकन करता है, बार-बार उसे एकटक जोहता है। नृप चिंतन करता है-क्या कोई विद्याधर है या कोई वणिपति के घर पर छद्म वेश में रहता है अथवा यह मेरा चित्त विकार है या मेरे मन और नेत्रों में आनंद उत्पादक है। वह मुझको हरण करने वाला है, जो कलागुण से श्रेष्ठ स्वामी या दुर्जन है। वह क्या राजा है, मेरे मन में संशय हुआ। ज्ञानी के बिना संशय का नाश कैसे हो, कोई देव मेरे धर्म में आ पहुंचा है अथवा साधर्मी सत्-पुरुष जिनेन्द्र की भक्ति से युक्त एवं उपकार का रसीला है। इस तरह मन में विचार करता है, ऐसा जानकर फिर उसका
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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