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________________ वरंगचरिउ 147 2. धर्मसेन का पुत्र वियोग तुम्हारे बिना कौन हृदय को सहारा देगा, शोक को धारण करके राजा धर्मसेन उठते एवं गिर पड़ते हैं, तुम्हारे बिना बहुओं को कौन मुग्ध करेगा? तुम्हारे बिना मेरे जीवनकाल के अंत में कौन मुखाग्नि देगा? तुम्हारे बिना मेरा घर-आंगन सूना हो गया है, तुम्हारे बिना पुत्र समूह आदि सब कुछ सूना हो गया है। हे भोजराज! कुल मंडन तुम्हारे बिना कौन शत्रु सेना एवं शत्रु राजा से युद्ध करेगा, दुरूह जयसिरि को कौन जीतकर पायेगा? तुम्हारे बिना कौन दुष्टों को आतापित करेगा? इस प्रकार से हे पुत्र! तुमको देखू। स्वपरिजन रक्षा के लिए रोते हैं, तुम्हारे बिना नगर गहन के समान हो गया है। प्रजा का समान दृष्टि से कौन अवलोकन करेगा। हाय पुत्र तुम्हारे बिना क्या किया जाये? हे श्रेष्ठ! (मैंने तो) जीवित ही प्राण दे दिये हैं। नेत्रों के आंसुओं के जल से मेरा शरीर सींचा गया है, मानो विधाता ने झरना का निर्माण किया हो। हाय! हे पुत्र!! तुम्हारे बिना षट्रस भोजन विषतुल्य भासित होता है। तुम्हारे बिना पान के जल का लेपन भी अतिवेदना एवं दाह को उत्पन्न करता है। इस प्रकार अज्ञान से विलाप होता है, राजा बार-बार मूर्च्छित हो जाता है। राजा को शोकातुर जानकर के प्रजा के सभी जन राजा के घर पर पहुँचे। पुनः राजा को शोक से टूटा हुआ (विदीर्ण) अवलोकन करके, नगर जन कौन-कौन नहीं रोता है? जहाँ भूपति अतिशोक में रत हैं, वहां वीर, सामंत, मंत्री सभी पहुंचते हैं और मंत्री ने कहा-हे परमेश्वर! हे निज पादकमल रूप सूर्य! घत्ता-हे महाराज! तुम सम्पूर्ण जनपद के श्रेष्ठ, शोक मत करो। तुम्हारे शोक करते हुए सम्पूर्ण जन (प्रजा) बहुत अधिक (अप्रीतिकर) दुःख को प्राप्त करते हैं। खंडक-क्या जो प्रिय वर्णित है-धन, यौवन, पुत्र और बंधुजन (परिवारजन) वह सभी क्षणभंगुर हैं। अन्य मंदिर (आत्मा या जिनालय) को देखो। 3. शोक सहित राजा को समझाना : हे राजन! भारी दुःख को देने वाले शोक को नहीं करना चाहिए (क्योंकि) शोक को प्राप्त हुआ दुर्गति का पात्र होता है। यदि शोक करने से कुमार वरांग घर में आते हैं तो सभी जन मिलकर हाहाकार मचाते हैं। शोक में लीन होना तिर्यंच के समान है। अतिशोक होने से प्राण भी जाया करते हैं, शोकसहित व्यक्ति मार्ग-उन्मार्ग नहीं देखता है, शोक में रत व्यक्ति श्रेष्ठ शिक्षा (सीख) नहीं गिनता है, शोकवाला अपने आपको आतापित करता है, शोकवाला परमपद (श्रेष्ठ
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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