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________________ वरंगचरिउ 13. सागरबुद्धि का नगर की ओर प्रस्थान इस प्रकार कहकर दिन में कुमार वरांग सहित सभी ने शुभ मुहूर्त्त में प्रस्थान किया । श्रेष्ठी अपने नगर की ओर चलते हैं, जहाँ पर घर एवं महल उज्ज्वल सफेदी से सज्जित थे । श्रेष्ठी सागरबुद्धि अपनी नगरी में पहुंचता है, वरांग शोभा से अलंकृत था। नगर के अभिमुख पहुंचते हैं, सम्पूर्ण संघ अपने-अपने घर में आते हैं, वरांग कुमार श्रेष्ठी के भवन (महल) में पहुंचता है । वणिक कर नम्रता से आसक्त हुए, उस अवसर पर वणिक वर्ग के द्वारा कुमार वरांग के नगर आगमन पर अपने पुत्र के सदृश महोत्सव किया गया। दीपक लेकर दरवाजे पर कुमार की आरती की गई, थालियों में कंचन भरकर फेंका गया, वणिक की स्त्रियों ने मंगल शब्द उच्चारित किये, अनेक बार कुमार की सम्यक् प्रशंसा की गई, षट-रस युक्त, सरस और रमणीय भोजन दिया गया। इस प्रकार विश्राम करते हुए वणिक कहता है- मेरे वचनों को निश्चित होकर सुनो। यह मेरी प्रिय माता और बंधुजन (परिजन) हैं। 139 गुणसागर ! यह द्रव्य (धन) ग्रहण करो, यह घोड़ा, यह घर सब कुछ तुम्हारा है । तुम सौभाग्यवान पिता के पुत्र हो, तुम्हारे समान मेरा पुत्र नहीं है, मैं पुत्र के रूप में तुम्हारी संगति चाहता हूँ। घत्ता - यह वचन सुनकर राजपुत्र वणिपति (वणिक) का धर्मपुत्र होता है । न्याय-नीति सहित पूजा विधान होता है और अच्छी तरह से सुख का समय व्यतीत होता है । 14. सागरबुद्धि के लिए वन में एक स्त्री मिलना दुवई - इस प्रकार वरांग लोगों में प्रधान होता है जो श्रेष्ठ गुणों एवं लक्षणों का घर है। वहां पर घर-घर में निरन्तर श्रेष्ठी बालक वरांग के गीत गाये जाते हैं । एक दिन सज्जन सागरबुद्धि वन में गया, वहां पर नंदन वन (उद्यान) में किसी स्त्री के द्वारा उसको कहा गया। जिसे देखकर सम्पूर्ण दुःखों का नाश हो जाता है, ऐसी स्त्री बिन्दी और काजल लगाये हुए पुष्पसहित थी, उसके पयोधर मन को संतोष देते हैं, उसके अधरबिम्ब मनुष्य की इच्छाओं को पूरा करते हैं, उसके काले बाल भूमि पर उत्पन्न वृक्ष के शिखर पर स्थित काले भौरे के समान थे। वह स्त्री अलंकारसहित परिजनों के पास पहुंचती है। काम और क्रोध के बिना सुन्दर अंगों वाली देखी जाती हुई वह ठग रही थी, जैसे वहां आम्र वृक्ष पर बैठे हुए तोते को सुन्दर शब्दों वाली वह कोयल कहती है ।
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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