SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वरंगचरिउ 115 का संग हो। कहीं सिंह की रौद्र गर्जना होती है, कहीं पर हिरण क्रीड़ा करते हैं, कहीं पर हाथियों का समूह युद्ध कर रहा है, कहीं पर वराह (जंगली सुअर) भिड़ते हैं और वे क्रोध पूर्वक अत्यन्त लड़ते हैं, कहीं सिंह का समूह अपनी क्रीड़ा में लवलीन है, कहीं पर सांभर और नील गायों का समूह प्राप्त करता है, कहीं पर मोर मधुर शब्द एवं नाच कर रहा है। वहां जंगल में कुमार भूला हुआ भ्रमण करता है। वह बेचारा ऐसा श्रेष्ठ-मार्ग नहीं पाता है, जैसे अन्य-अन्य भववन में जीव भूला हुआ भ्रमण करता है। बंधुजन (परिवार) और प्रिय-जननी से वियोग हो गया, मार्ग में भ्रमण करते हुए पैर श्रान्त हो (थकान) गये। दौड़ने वाला (धावक) ऐसे मूर्च्छित हो जाता है, जिस प्रकार मोह में अंधा व्यक्ति निद्रादि का भोग करता है। फिर उठकर जल पर दृष्टि डालता है, पाप को हरण करने वाले जिनेन्द्र देव का स्मरण करता है, वन में मार्ग नहीं जानते हुए चलता जाता है और वहां सूर्य अस्ताचल को प्राप्त करता है। घत्ता-कुमार रात्रि के चारों पहर को बिताने के लिए अंगों को फैलाता है, मानो रात्रि में सूर्य पतित हुआ हो। जो तेज चिर रहता है, वह भी मंदता को प्राप्त करता है, पुनः यहां वन को पाता है। 21. भयानक जंगल का वर्णन मारने के लिए भयानक आवाज हो रही है। फिर कुमार तुरन्त ही सिंह को पाता है, वह विकराल दांतों वाला (भक्षण करने के लिए) अपनी जिह्वा को लपलपा रहा था, जिसकी पूंछ बड़ी और निरन्तर हिंसक थी, क्रूरता से युक्त वह दुष्ट मानो प्रलयकाल हो। वह देखकर राजपुत्र (वरांग) शंकित होता है, जीवन के भय से शरीर कांपने लगता है और वह शीघ्र वृक्ष पर चढ़ जाता है। हाय-हाय! विधाता यह कौन-सी अवस्था दी है, किस तरह हमारा नगर रमणीय था। देखो-देखो कर्म का विपाक फल, कोई होने वाले भाव को नहीं जानता है, विचार अन्य का करते हैं और अन्य हो जाता है। मोह में अंधा प्राणी पाप-पुण्य को नहीं जानता है, पाप का आचरण करता है जिससे मुझे सुख हो, मनुष्य भविष्य में होने वाले दुःख को नहीं जानता है। विधि की भवितव्यता ने मुझे पिता से दूर कर दिया, कैसे युवराज पद पर विपुल लक्ष्मी से युक्त था, कैसे सुकुमार शरीर अति मनोहर था, मेरा हाथी पर गमन होता था, यह झूठ नहीं है। कैसे परिजनों ने पुत्र का वियोग प्राप्त किया, कैसे क्षुधा आने पर भोजन करते थे। पलंग एवं श्रेष्ठ उपधान (बिस्तर) पर विश्राम करते थे, रात्रि में श्रेष्ठ-सुख के लिए क्रीड़ा करते थे। परन्तु यहां निर्जन वृक्ष के ऊपर निवास करता हूँ और भयानक रात्रि काल में विश्राम करता हूँ। पुनः इस प्रदेश में मृगराज (सिंह) प्राप्त होता है। मेरी वन में कौन रक्षा करता है अथवा सत्पुरुष शोक नहीं करते हैं एवं अरहंत देव को अपने चित्त में धारण करते हैं। यद्यपि विधि के द्वारा जो रचित है, वही होगा तो भी वह कुमार जिन चरणों
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy