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________________ श्लो. : 2 स्वरूप - संबोधन-परिशीलन प्रतिदिन घृत- दुग्धादि पौष्टिक द्रव्यों का सेवन करता है तथा अखाड़े में जाकर व्यायाम भी करता है, फिर भी ढलते शरीर को नहीं बचा पाता है, उसको भी देखते ही देखते मृत्यु का सामना करना पड़ता है, यानी कि राग के वश होकर कर्म-बन्ध ही कर पाता है, पर शरीर के परिणमन पर कोई पुरुषार्थ नहीं चलता । लोक में ऐसी कोई औषधि निर्मित नहीं हुई, जिससे कि प्रकृति के इस ध्रुव धर्म को रोका जा सके । अहो हंसात्मन्! प्रति-क्षण समानजातीय स्वभाव का ध्यान करो, जो मनुष्य-पर्याय में था, वही देव - पर्याय को प्राप्त होता है। एक पर्याय का विनाश, दूसरी पर्याय का उत्पाद, पर जीव-द्रव्य ध्रौव्य है, – इस प्रकार से आत्मा त्रिलक्षणात्मक है, भावों की अपेक्षा से देखें, तो जीव अशुभ उपयोग में था, वही शुभ- उपयोग को प्राप्त हुआ, अशुभ-उपयोग का व्यय शुभोपयोग का उत्पाद, आत्मा परिणामी ध्रौव्य है । संसारी जीव रत्नत्रय की आराधना करके संसार का अभाव करके भक्त-अवस्था को प्राप्त होता है। संसार-पर्याय का व्यय मुक्त-पर्याय का उत्पाद, परंतु आत्मा वही है, जो पूर्व में संसारी बनकर चतुर्गति भ्रमण में नाना द्रव्यों से पीड़ित थी, वही आत्मा जगत्त्रय काल-त्रय वन्दनीय परमात्म- पद को प्राप्त हुई आत्मा ध्रौव्य है, यहाँ यह कैसे हो सकता है? ..इस शंका का बहुत ही सुंदर समाधान आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने आप्तमीमांसा ग्रंथ में किया है कार्योत्पादः क्षयो हेतोर्नियमाल्लक्षणात् पृथक् । न तौ जात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत् । । - आप्तमीमांसा, श्लो. 58 / 31 जो कार्य की उत्पत्ति है, वही हेतु उपादान - कारण का विनाश है। निश्चय से दोनों उत्पाद और व्यय स्वरूप भेद के कारण भिन्न हैं । जाति आदि के कारण अब स्थान के कारण सत्त्व, प्रमेयत्व आदि के कारण उत्पाद और व्यय भिन्न नहीं हैं, कैसे ? . .... उस रूप से एक होने के कारण परस्पर अपेक्षा के बिना उत्पत्ति और विनाश आकाश-कुसुम के समान अवस्तु हो जाएँगे, अतः ये तीनों कथञ्चित् परस्पर अभिन्न और कथञ्चित् भिन्न हैं । द्रव्य दृष्टि से किसी वस्तु का न उत्पाद होता है, न विनाश । वह सदैव एक-सी रहती है। पर्याय रूप से उत्पत्ति और विनाश होता है, कार्य की उत्पत्ति ही कारण का विनाश है । एक पर्याय की उत्पत्ति तभी होगी, जब पूर्व पर्याय का विनाश होता है, अतः उत्पाद और व्यय दोनों एक-साथ होते हैं, और द्रव्य की सत्ता दोनों में समान रूप से
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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