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________________ श्लो. : 2 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 129 यत्सत्तद् द्रव्यमित्यर्थः ।। -सर्वार्थसिद्धि, 5/29, पैरा 582 जो सत् है, वह द्रव्य है, –यह इस सूत्र का भाव है कि असत् का उत्पाद नहीं होता, सत् का विनाश नहीं होता, द्रव्य-दृष्टि से यह सनातन क्रिया है। आत्मा कभी उत्पन्न नहीं हुई, कभी नष्ट भी नहीं होगी, अनादि से है और अनन्त काल तक इसीप्रकार विद्यमान रहेगी। पूर्णतः विनाश नहीं होता, जिन-शासन में तुच्छाभाव को किञ्चित् भी स्वीकार नहीं किया गया। तुच्छाभाव का अर्थ पूर्णतया अभाव है, जब पूर्णतया अभाव ही हो जाएगा, तब द्रव्य का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा, -ऐसा होने से लोकालोक भेद समाप्त हो जाएगा और तब लोक-अलोक में क्या अन्तर रहेगा?... -जैसा-अलोकाकाश शुद्ध आकाश है, क्योंकि वहाँ पर शेष द्रव्य नहीं हैं, उसी प्रकार छ: द्रव्यों के समूह को जो लोक संज्ञा प्राप्त है, वह भी समाप्त हो जाएगी, संसार, मोक्ष, पुण्य, पाप ही सब व्यर्थ हो जाएगा। सम्पूर्ण लोक में जड़ता-शून्यता का प्रसंग आएगा। अतः तत्त्वज्ञानियो! जिन-देव की देशना के अनुसार तत्त्व-ज्ञान को प्राप्त करो। उत्पत्ति-विनाश द्रव्य में नहीं होता, उत्पाद-व्यय द्रव्य की पर्यायों में ही होता है, द्रव्य तो सद्भाव-रूप ही है भावस्स पत्थि णासो पत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। गुण-पज्जएसु भावा उप्पाद वए पकुव्वंति।। -पंचास्तिकाय, गा. 15 भाव "सत्" का नाश नहीं होता तथा अभाव "असत्" का उत्पाद नहीं है, भाव गुण-पर्यायों में उत्पाद-व्यय करता है, इस प्रकार पूर्णरूप से समझना। आत्म-द्रव्य में अभाव-भाव का पूर्ण अभाव है, अतः आत्मा की अनाद्यन्तता स्वतः-सिद्ध है। आत्मा की त्रैकालिकता पर सम्यग्दृष्टि जीव को किसी भी प्रकार के प्रश्न ही नहीं उठते। प्रत्येक मुमुक्षु का कर्तव्य है कि वह अपने आस्तिक्य गुण को पूर्णरूपेण सुरक्षित करके चले, आस्तिक्य गुण के अभाव में सम्पूर्ण गुणों का अभाव समझना चाहिए। अहो! उस व्यक्ति के यहाँ व्रत, नियम, तप, त्याग कहाँ ठहरता है, जहाँ आत्मा के प्रति आस्था नहीं है; आश्चर्य तो इस बात का है कि जब वह आत्मा को ही नहीं स्वीकारता तो-फिर वह उपर्युक्त क्रियाएँ किस के लिए कर रहा है, लोक में मूढ़-मतियों की कमी नहीं है, जिसके मध्य में से सम्पूर्ण लोक का वेदन कर रहा है, उसे ही नहीं वेद पा रहा, .....क्या कहूँ... प्रज्ञा की जड़ता को। जिसकी बुद्धि जड़ भोगों में लिप्त है, वह
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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