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________________ श्लो. : 2 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 125 कारण का चिन्तवन करता है कि मेरे दुःख का कारण यह नारक भूमि, या ये नारकी कैसे हो सकते हैं?... इस भूमि पर असुर जाति के देव भी आ रहे हैं, तीसरे नरक तक अम्बावरीष देव भी आ रहे हैं और नारकियों को परस्पर लड़ाते हैं, तब वह भद्र-परिणामी विचार करता है कि नरक-भूमि कष्ट देती, तो इन देवों को कष्ट क्यों नहीं हो रहा, दूसरे नारकी जीव कष्ट देते हैं, तो इन देवों को क्यों नहीं देते हैं, मेरे कष्ट के ये बाह्य निमित्त अवश्य हैं। पर्याय की प्रत्यासत्ति से यह समझ में आ रहा है, पर इसका अन्तरंग कारण अवश्य होना चाहिए। नरक-पर्याय क्या है, पर इसका अंतरंग मेरे द्वारा किये गये अशुभ कर्म ही होंगे, मुझे सद्गुरुओं ने बहुत उपदेश दिये थे, पर मैंने ध्यान ही नहीं दिया और बहु-आरंभ-परिग्रह का संचय कर अति-संक्लेश परिणामों से पूर्व-पर्याय को पूर्ण किया था, उसका ही ये फल है। ये नरक भूमि, नारकी जीव तो बाह्य निमित्त मात्र हैं, पूर्व का कारण ही मेरे दुःख का मुख्य साधन है, जो वर्तमान है, दुःख तो कार्यभूत है। अहो मुमुक्षुओ! यहाँ नरक व नारकी का दृष्टान्त तो उपलक्षण मात्र है। शेष जीवों को भी उक्त विषय पर चिन्तन करना चाहिए। वर्तमान जीवन में उपस्थित हुए आतप एवं बहु-दुःखों को देखकर व्यथित तथा अन्य को दोष न देकर कार्य-कारण-भाव पर चिन्तवन करना चाहिए। स्वयं के किये पूर्व के कर्म न होते तो, जो दुःख के निमित्त दिखायी दे रहे हैं, वे दुःख-रूप फलित क्यों होते?... क्या कारण है? यह प्रश्न स्वयं ही उठाना चाहिए। बिना कारण के भी कोई कार्य घटित होते हैं क्या?.. यह सिद्धान्त है कि कार्य की निष्पत्ति कारण के सद्भाव में ही होती है, चाहे वह लौकिक हो, चाहे पारमार्थिक, यही कारण है कि महान् तार्किक दर्शनाचार्य अकलंकदेव स्वामी ने हेतु व हेतु-फल की चर्चा की है। हेतु कारण है, हेतु-फल कार्य है, शुभ-भाव कारण है, शुद्ध-भाव कार्य है। कारण-कार्य समयसार को अध्यात्म-शास्त्रों में सर्वत्र प्ररूपित किया है। एक-समय पूर्व का भाव कारण है, द्वितीय समय का कार्य है। पूर्वचर हेतु, उत्तरचर हेतु को न्याय ग्रन्थों से समझना चाहिए। शान्त भाव से बैठकर एकान्त में व्यक्ति ध्यान को प्राप्त कर ले, पर-दृष्टि से भिन्न होकर स्व-दृष्टि में लीन हो जाए, एक श्वास-प्रमाण-काल भी तत्त्व-चिन्तवन से शून्य नहीं होना चाहिए। क्या अन्य मेरा कुछ कर पाएगा, कारण-कार्य भाव ही मेरे सुख-दुःख के साधन हैं; अन्य लोक का द्रव्य बहिरंग कारण है, अन्तरंग कारण स्व-द्रव्य भाव-कर्म को ही समझना चाहिए। संसार-भ्रमण, मोक्ष-गमन इन दोनों का कार्य-कारण भाव है, संसार में जीव भटक रहा
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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