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________________ 14/ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो. : 1 रज-कण स्वयमेव विगलित हो जाते हैं, उसी प्रकार से आत्मा के राग की आर्द्रता से कर्म-कण लग जाते हैं, वीतराग-भाव यथाख्यात-चारित्र के बल से वे कर्म-कण पृथक हो जाते हैं, अथवा यों कहें कि जिस प्रकार अग्नि के माध्यम से स्वर्ण को पृथक् कर लिया जाता है, उसी प्रकार परम तपोधन वीतराग-योगी ध्यानाग्नि के माध्यम से कर्म- किट्टिमा को पृथक् कर शुद्धात्म-तत्त्व को प्राप्त कर लेते हैं। विभिन्न भारतीय दर्शनों की दृष्टि में मोक्षः सांख्य दर्शन- सांख्य-मतावलिम्बियों ने आध्यात्मिक (शारीरिक, मानसिक), आधिभौतिक और आधिदैविक इन दुःखों से सदा के लिए दूर हो जाने को मोक्ष माना है। वैशेषिक दर्शन-"बुद्ध्यादिन्यायगुणोच्छेदः पुरुषस्य मोक्षः" अर्थात् वैशेषिक बुद्धि आदि विशेष गुणों का नाश हो जाने को ही आत्मा का मोक्ष मानते हैं। बौद्ध दर्शन- "प्रदीप-निर्वाण-कल्पमात्म-निर्वाणम्" जिसप्रकार दीपक बुझ जाता है; उसीप्रकार आत्मा की संतान का विच्छेद होना मोक्ष है। साथ ही बौद्ध दर्शन दो प्रकार के निर्वाण मानता है- सोपाधि एवं निरुपाधि; सोपाधि-शेष निर्वाण में केवल अविद्या, तृष्णा आदि रूप आम्रवों का नाश होता है, शुद्ध चित्संतति शेष रह जाती है, किन्तु निरुपाधि-शेष निर्वाण में चित्त-सन्तति भी नष्ट हो जाती है, यहाँ मोक्ष के इस दूसरे भेद को ध्यान में रखकर उसकी मीमांसा की गयी है। इस सम्बन्ध में बौद्धों का कहना है कि जिस प्रकार दीपक के बुझा देने पर वह ऊपर-नीचे, दाएं-बाएँ आगे-पीछे कहीं नहीं जाता, अपितु वहीं शांत हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा की सन्तान का अंत हो जाना ही मोक्ष है, इसके बाद आत्मा की सन्तान नहीं चलती, वहीं शांत हो जाती है। बौद्धों के इस तत्त्व की मीमांसा करते हुए आचार्य-श्री ने बतलाया है कि उनकी यह कल्पना असत् ही है। मनीषियो! सत्यार्थ-स्वरूप का ज्ञान दीर्घ तपस्या का फल है, पापोदय में वह भाग्योदय कहाँ? ...... जहाँ सर्वोदयी देशना प्रकट हो सके, जिनेन्द्र-देव के सर्वोदय-शासन का आश्रय ज्ञानी को पुण्योदय से ही प्राप्त होता है। जैन-दर्शन में जो मोक्ष-तत्त्व की चर्चा की गई, वह बहुत तर्क-सम्मत एवं समीचीन है। यहाँ पर न गुणों के नाश की चर्चा है, न आत्मा के ही नाश की क्योंकि
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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