SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्लो. : 1 देना - सामान्य लोगों की पहचान कुल से होती है, पर विशिष्ट लोगों से कुल की पहचान होती है। यह बात तो सत्य है, पर अपनी पहचान बनाने के लिए सत्य को आवृत करने का दुष्प्रयास नहीं होना चाहिए, जो यह कह रहा है कि धर्म करने वाले दुःखी देखे जा रहे हैं, वह मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण मानने वाले चार्वाक् सिद्धान्त में जी रहा है, भले ही उसने किसी भी धर्म-दर्शन को मानने वाले कुल में जन्म क्यों न लिया हो । धर्म करने से कभी भी दुःख नहीं होता; यदि धर्म पुरुषार्थ किया है, तो धर्म का फल निःश्रेयस् अभ्युदय रूप ही फलित होता है और पाप कर्म का फल कभी भी सुख रूप फलित नहीं होता । ध्यान रखो - यदि पाप से सुख मिलने लगा, तो फिर नर्क - मार्ग कहाँ से प्राप्त होगा ?... सर्वप्रथम तो यह निश्चित कर लेना कि पापी पाप कर्म से सुखी नहीं है, धर्म करने वाला धर्म से दुःखी नहीं है, इसके आगे अब एकान्त का दुराग्रह छोड़कर स्वस्थ - चित्त होकर सुनो.... सर्वप्रथम जीव के प्रेत-भाव (पुनर्भव) को स्वीकारो, अगर प्रेत-भाव ठीक से समझ में आ जाता है, तो आगे का विषय सहज ही समझ में आ जाता है, लोक में देखा जाता है कि किसी को भूत - बाधा / प्रेत-बाधा हो जाती है, तो उसे तांत्रिक के पास ले जाते हैं, वहाँ वह व्यन्तर बोलता है कि पूर्व में मेरे-साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया था, इसलिए इसको कष्ट दे रहा हूँ, - इसका अर्थ हुआ कि पुनर्भव होता है। 1 6/ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन अहो प्रज्ञ! अब प्रज्ञा का प्रयोग करो । भूत पर्याय थी, इसलिए वर्तमान पर्याय है, वर्तमान पर्याय है, तो भविष्य पर्याय भी होगी । केवल प्रत्यक्ष प्रमाण मानने वाले प्रज्ञा-न्यून पुरुष के पास तीन काल घटित नहीं होते, पर इतना विशिष्ट ध्यान रखना कि किसी के द्वारा सत्यार्थ-भाव को नहीं स्वीकारने से सत्यार्थ को असत्य नहीं किया जा सकता। वस्तु-धर्म तो जैसा है, वैसा ही है, इसे सर्वज्ञ देव भी परिवर्तित नहीं कर सकते। सर्वदर्शी व सर्वज्ञाता तो कोई विशिष्ट आत्मा ही हो सकती है, जिसे हम भगवान् कहते हैं, पर सर्व-परिवर्तित कर्त्ता इस जगत् में न कोई हुआ है, न होगा । त्रिलोक की त्रिकाल - व्यवस्था को त्रिलोक में विकृत करने वाला आज-तक कोई उत्पन्न नहीं हुआ और ध्यान रखना- भविष्य में भी नहीं हो सकेगा। अज्ञ प्राणी व्यर्थ के परिणामों को ही राग-द्वेष रूप कर सकते हैं, उसके लिए तो प्रत्येक जीव स्वतंत्र है, पर स्वयं से भिन्न को अपने अनुसार नहीं कर सकते । प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल, स्व-भाव के अनुसार ही होता है। ध्रुव सिद्धान्तों को समझते हुए धारावाही विषय पर विचार करो, कुशल - कर्म (पुण्य), अकुशल कर्म (पाप)
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy