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________________ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो. : 1 बतलाकर बहु-उपकार किया है। आत्म-प्रवाद-पूर्व के गूढ़ रहस्यों को जिन्होंने उद्घाटित किया है, गिरनार पर्वत सौराष्ट्र में अम्बिका देवी के मुख से सनातन दिगम्बर धर्म का जयघोष कराया है, आदि दिगम्बर, हमारी आस्था के केन्द्र रूप जिनके पूज्यपाद आत्म-प्रदेशों के अंश में विराजते हैं, वे भगवन् कुन्दकुन्द स्वामी शुभाशीष प्रदान करें। मेरी बुद्धि 'दुर्' उपसर्ग को प्राप्त न हो, अतः पुनः-पुनः आचार्य भगवन्त अकलंक स्वामी की वंदना करता हूँ। वे मुझे स्व-प्रज्ञा-जैसी निकलंक-मेधा प्रदान करें, जिससे उनकी महान् कृति पर मेरी लेखनी विराम न ले। तीर्थेश पद पर विभूषित, अभद्रों को भी श्री समन्तभद्र बनाने वाले आचार्य भगवन्त मेरे हृदय में विराजें व इस अल्पज्ञ के अंदर तर्क-शक्ति का संचार करें। वीर की परंपरा में हुए अनेक आत्म-अन्वेषी आचार्यों में व घोर तपस्वी, एकान्तवासी, अध्यात्मलीन मुनि-कुंजर आचार्य आदिसागर महाराज, उनके कृपा-पात्र हुए अठारह भाषा-भाषी सिद्धान्त व न्याय-विद्या में प्रवीण आचार्य श्री महावीर कीर्ति महाराज, जिनके कर-कमलों से संस्कार को प्राप्त मम दादागुरु निमित्त-आचार्य-शिरोमणि, जिनके श्री-मुख से वाणी-निकली थी, मुझ अबोध के प्रति- "बेटा! तू जहाँ जाएगा; वहाँ तेरी जय होगी।" उन वात्सल्य-मूर्ति को मेरा नमस्कार हो, जिन्होंने एक पाषाण-खण्ड को परमात्म-पद की प्राप्ति के लिए अग्रसर किया; अध्यात्म-सिद्धान्त-तर्क-शास्त्रों का पारायण जिनके श्री-मुख से किया है, वे मम जिन-दीक्षा एवं गणी-पद-प्रदाता आचार्य भगवन्त विरागसागर सूरि सदा जयवन्त हों, ऐसे आचार्य, जिनका प्रति-पल आशीष मेरे शीष पर रहता है, युगप्रधान संत-शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी मेरी अविद्या का नाश करें। (सम्प्रति में सर्वराष्ट्र के लिए आश्चर्यभूत मासोपवासी तपस्वी-सम्राट आचार्य श्री सन्मतिसागर जी महाराज के श्री-चरणों में त्रिभक्ति-पूर्वक नमस्कार हो) सभी वन्दनीयों की वन्दना करके अपने परम वन्दनीय, अभीष्ट-देवता स्वर्णगिरी पर्वत पर विराजे १००८ श्री चन्द्रप्रभु स्वामी मेरे हृदय में चारित्र-चंद्र प्रकट करें। ____पंच परमेष्ठी की वंदना कर चैतन्य-मालिनी, परमानन्द-शालिनी, भगवती आत्मा की उपलब्धि हेतु स्वोपयोग की निर्मलता के लिए अकलंक वीर की वाणी प्राणि-मात्र को निष्कलंक प्राप्त हो, विभिन्न सुधी-जनों के आग्रह पर महान् ग्रन्थ न्याय-सिद्धांत से समन्वित अध्यात्म का कलश "स्वरूप-सम्बोधन" पर परिशीलन लिखने को उद्यत
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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