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________________ xlviii / 3. 4. 5. 6. 7. यह विषय द्रव्य के शुद्ध द्रव्यत्व-गुण पर दृष्टि ले जाने वाला है । प्रत्येक द्रव्य स्व- द्रव्य-गुण- पर्याय में निज-स्वभाव से परिणमन कर रहे हैं। अन्य किसी को भी पर के परिणमन में अपने परिणाम में ले जाने की आवश्यकता नहीं है। द्रव्य तो जैसा है, वैसा ही रहेगा; अन्य रूप, अन्यथा रूप नहीं है। प्रत्येक क्षण प्रत्येक द्रव्य जैसे हैं, वैसे ही हैं; जीव व्यर्थ में क्लेश करता है। न आत्मा को पर-कर्त्ता स्वीकारा, न पर को आत्मा का कर्त्ता स्वीकारों, वस्तु की स्वतंत्रता की पहचान करो । प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र ही है, ईश्वर आदि से भी परतंत्र नहीं है। शुद्ध दृष्टि से आत्मा कर्मों से भी स्वतंत्र है । ग्यारहवीं गाथा कर्म मुक्ति-विषयक है, आचार्य श्री के विचार निम्न प्रकार परिशीलित हैंध्रुव सत्य तो यह है कि भगवत् - देशना पर की आस्था के अभाव में अपनी सत्यता का अभाव तो नहीं कर पाएगी, पर-तत्त्व के प्रति विपरीत आस्था जीव भव - भ्रमण का कारण अवश्य बन जाती है। जो आगम के विरुद्ध भाषण करते हैं, वे वर्तमान में भले पूर्व पुण्य के नियोग से यश को प्राप्त हो रहे हों, परन्तु अन्तिम समय कष्ट से व्यतीत होता है, साथ ही भविष्य की गति भी नियम से बिगड़ती है । अहो प्रज्ञ! पुद्गल के टुकड़ों के पीछे आगम को तो नहीं तोड़ना । ध्यान रखो - समाधि सहित मरण चाहते हैं, निज-संसार की संतति को समाप्त करने की इच्छा है, तो अरहन्त - वचनों के अनुरागी बनो, यानी जिन-वाणी के अनुसार अपनी आस्था बनाओ एवं तदनुसार व्याख्यान करो, तदनुसार चिन्तवन करो। आचार्य - श्री ने बारहवीं गाथा में (जिसमें सम्यक् - ज्ञान के स्वरूप को परिभाषित किया है) तर्क - शैली का अभूतपूर्व प्रयोग पाया है। सम्यक् - ज्ञान के तलस्पर्शी तत्त्व - ज्ञान के बोध हेतु न्याय-नय का ज्ञान अपरिहार्य है। कहा गया है सत्य स्वयं की है जो कसौटी, नहीं चाहती अन्य पर सको । स्वर्ण शुद्धतम से भी शुद्धतर, नहीं माँजना अतिकर उसको ।। सदैव सत्य फाँसी के तख्त पर झूलता है तथा झूठ आदि दोष राजसिंहासन पर हमेशा बैठता है। आचार्यश्री ने परिशीलन में निम्नलिखित रूप में प्रकाश बिखराया है 1. 1. स्वरूप-संबोधन-परिशीलन कर्म का विपाक तीर्थंकर पद से भूषित आत्मा को भी स्वीकारना पड़ा, यानी भगवान् आदिनाथ स्वामी से पृच्छना कर लेना । भगवन्! आपके लिए छः माह तक निराहार क्यों रहना पड़ा ? 2. 3. कल्याणकारक में कहा गया है- "स्वभाव, काल, ग्रह, कर्म, दैव, विधाता (ब्रह्मा), पुण्य, ईश्वर, भाग्य, विधाता, कृतांत, नियति, यम, ये सब पूर्वजन्म - कृत कर्म के ही अपर नाम हैं।" जब कर्म के अनुसार ही फल प्राप्त होता है, तो व्यर्थ में ही ईश्वर को क्यों विराजमान करते हो? ...... सीधा बोलो - स्व कृत-कर्म ही मेरे सुख-दुःख के कर्त्ता हैं, अन्य कोई कर्त्ता नहीं है । ज्ञानी! ध्यान दो - जब बन्ध स्व-हेतुक है, तब मोक्ष भी स्व-हेतुक ही है, वह भी पर- हेतुक नहीं । सप्त-भय-मुक्त व्यक्ति ही सत्यार्थ का प्रतिपादक हो सकता है । भय के साथ लोभ- कषाय से दूषित - चित्त वाला व्यक्ति भी सत्य - आगम को नहीं कहता, कहीं न कहीं विरुद्ध-प्ररूपणा कर ही देता है ।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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