SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन Ixxix कुल मिलाकर तथ्यपूर्ण बात यह है कि न्याय की सारी परम्पराएँ परम-सत्य के अन्वेषण के लिए जहाँ संकल्प-बद्ध हैं, वहीं यह भी तथ्य है कि वे अपने संकल्प के अनुसार लगभग सत्रहवीं शताब्दी तक तो कुछ-कुछ आगे बढ़ती रहीं, पर आत्म-केन्द्रित होने की वजह से उन्होंने पश्चिम की तरह भौतिक यथार्थ जगत् को व्याख्यायित करने के लिए औजारों का इस्तेमाल नहीं किया, इसलिए जिस तरह पश्चिम में Logic हर अध्येता के लिए अनिवार्य है, वैसे ही भारत में न्याय-शास्त्र हर अध्येता के लिए वैचारिक रूप में अनिवार्य रहते हुए भी व्यावहारिक रूप से अनिवार्य नहीं रह सका। आज जरूरत इस बात की है कि परमार्थ सत्य और आत्मा को जानने वाले प्रमाण व नय-आश्रित औजारों का इस्तेमाल जहाँ आध्यात्मिक जगत् में हो, वहीं भौतिक जगत् की व्याख्या के लिए भी यदि होने लग जाय, तो हो सकता है कि भौतिक-शास्त्रियों को भी आध्यात्मिक-जगत् की ओर आने का एक रास्ता मिले और इतना ही नहीं, बल्कि हो सकता है कि उन्हें अपनी भौतिक-शास्त्रीय समस्याओं के समाधान भी अध्यात्म-शास्त्र में पल्लवित न्याय के सूत्रों से सीधे आज भी मिलने लग जाएँ। ___ अब यहाँ इस संक्षिप्त-चर्चा के बाद हम पुनः इस कृति की सम्पादन-प्रविधि की बात पर आते हैं। कुछ-एक विद्वान् ‘स्वरूप-सम्बोधन' को आचार्य भट्ट श्री अकलंकदेव की कृति मानते हैं और कुछ-एक विद्वान् इस विषय में निश्चित-मत नहीं हैं; पर वे भी "स्वरूप-सम्बोधन' की विषय-वस्तु के प्रस्तुति के ढंग को देखें, तो यह बात साफ होगी कि यह रचना अकलंक-जैसे तार्किक से कमतर व्यक्तित्व की रचना नहीं हो सकती है, बल्कि लगता तो यह है कि "स्वरूप-सम्बोधन' भट्ट अकलंक के जीवन के उत्तरार्द्ध की रचना है, इसका कारण यह है कि रचनाकार जैसे-जैसे विषय में पगता जाता है, वह वैसे-वैसे सरल और सहज भाषा का प्रयोग कर उसमें गंभीर और गूढ़ अर्थ का निधान करने में प्रवीण होता जाता है, जबकि प्रारम्भ की अवस्था में वह जटिल से जटिल भाषा का प्रयोग करके भी उतने गूढ़ अर्थ को नहीं कह पाता। आप "स्वरूप सम्बोधन' के पच्चीसों श्लोकों को जरा ध्यान से पढ़िये, तो आपको लगेगा कि ये तो बड़ी सरल रचना है, जिसका अर्थ अपने-आप उतर आता है, पर जैसे ही आप रचना के एक-एक पद पर गम्भीरता से विचार करते हैं, तो लगता है कि पंतजलि के "महाभाष्य' और भर्तृहरि के "वाक्यपदीयम्'-जैसी भाषा-शैली अपनायी है श्री भट्ट अकलंक ने, जो दिखने में सरल और सहज है, पर है गंभीर-अर्थ-गर्भी। स्वरूप-सम्बोधन के गंभीर-अर्थ को और-सरल भाषा में परोसने का काम किया है स्वरूप-सम्बोधन-परिशीलन में आचार्य श्री विशुद्धसागर जी ने।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy