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________________ 254/ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन समाधि- वीतराग-भाव से आत्मा का ध्यान करना समाधि है अथवा समस्त विकल्पों का नष्ट हो जाना परम-समाधि है । - जै. द. पा. को., पृ. 241 समाधि-तन्त्र - इसका दूसरा नाम समाधि - शतक भी है। यह ग्रन्थ आचार्य पूज्यपाद (ई. रा. – 5) कृत अध्यात्म-विषयक 105 संस्कृत - श्लोकों में निबद्ध है । इस पर आचार्य प्रभाचन्द्र ने एक संस्कृत टीका लिखी है। - जै. सि.को. भा. 4, पृ. 339 सम्यक् चारित्र-संसार की कारण भूत वाह्य और अन्तरंग क्रियाओं से निवृत्त होना सम्यक् चारित्र है। वाह्य और अभ्यंतर निवृत्ति की अपेक्षा अथवा निश्चय व व्यवहार की अपेक्षा चारित्र दो प्रकार का है। कर्मों के उपशम आदि की अपेक्षा औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक के भेद से चारित्र तीन प्रकार का है- सामयिक, छेदोपस्थापना परिहार - विशुद्धि सूक्ष्म - साम्यराय और यथाख्यात चारित्र के भेद से चारित्र पाँच प्रकार का है । सम्यक्त्वाचरण - चारित्र और स्वरूपाचरण - चारित्र - ऐसे दो भेद भी चारित्र के किए गए हैं। - जै.द.पा.को., पृ. 243 सम्यग्ज्ञान- सम्यग्दर्शन के साथ होने वाले यथार्थ या समीचीन ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं। मति-ज्ञान, श्रुत-ज्ञान, अवधि- ज्ञान, मनः पर्यय-ज्ञान और केवल ज्ञान - ये सम्यग्ज्ञान के पाँच भेद हैं। परिशिष्ट-2 भगवान् के द्वारा कहे गए सात तत्त्वों के यथार्थ - श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं, अथवा आत्म-रुचि होना सम्यग्दर्शन है अथवा 'स्व-पर' का भेद - विज्ञान होना सम्यग्दर्शन है । - जै.द.पा.को., पृ. 243 सम्यग्दर्शन- सच्चे देव - शास्त्र - गुरु के प्रति श्रद्धान का नाम सम्यग्दर्शन है अथवा जिनेन्द्र - जै.द.पा.को., पृ. 243 सांख्यदर्शन- आत्मा के तत्त्वज्ञान को अथवा सम्यग्दर्शन-प्रतिपादक शास्त्र को सांख्य कहते हैं। इनको ही प्रधानता देने के कारण इस मत का नाम सांख्य है अथवा 25 तत्त्वों का वर्णन करने के कारण सांख्य कहा जाता है। इसके मूल - प्रणेता महर्षि कपिल थे। - जै. सि.को. भा. 4, पृ. 399 सादृश्य–अस्तित्व– अस्तित्व छहों द्रव्यों में पाया जाता है, अतः साधारण है । कर्मोदय क्षय, क्षयोपशम व उपशम से निरपेक्ष होने के कारण यह पारिणामिक है । अस्तित्व दो प्रकार का हैस्वरूपास्तित्व और सादृश्यास्तित्व । सादृश्यास्तित्व का उदाहरण - धर्म का वास्तव में उपदेश करे हुए जिनवर वृषभ ने इस विश्व में विविध लक्षण वाले ( भिन्न-भिन्न स्वरूपास्तित्व वाले) सर्व द्रव्यों का 'सत्' ऐसा सर्व-गत एक लक्षण कहा है। - जै. सि.को., भा. 4, पृ. 221-222 साध्य-साधक-संबन्ध ज्ञानी का ज्ञान और ज्ञेय का संश्लेष सो संबन्ध है । अ अ
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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