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________________ स्वरूप - संबोधन - परिशीलन नहीं हो सकती, और यदि उसका जन्म हो भी जाए, तो भी तर्काधार के बिना कोई भी ज्ञाना- शाखा पल्लवित भी नहीं होती । / xxi हमारी परम्परा में न्याय - शास्त्र का चरम उद्देश्य वस्तु तत्त्व के सर्वांग स्वरूप को सयुक्तिक रखने में रहा है । भ्वादिगण की 'नी' धातु का प्रयोग ले जाने के अर्थ में होता है, जिससे नौका की भाँति तैरकर पार उतार कर ले जाया जा सके, वह न्याय कहलाता है अर्थात् जिस ज्ञान-शास्त्र के माध्यम से परमार्थ-तत्त्व का सत्यार्थ पूरी तरह गृहीता को बौद्धिक रूप से अवगमित कराया जा सके, उसे न्याय - शास्त्र मानने की हमारी परम्परा रही है । हमारी परम्परा में अनुमान को न्याय - शास्त्र में प्रमुख विचार का विषय बनाया गया अर्थात् अनुमान को सत्य की सिद्धि में कारक माना गया, इस अनुमान की प्रक्रिया के पाँच अंग माने गये - प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनयन और निगमन । गौतम की न्याय - दर्शन की परम्परा में अनुमान की चर्चा के बहाने इन पाँचों अंगों की बात की गयी । परिन्योर्नीणोर्द्यूताभ्रेषयोः ( 3.3.37 ) के अनुसार अभ्रेष अर्थ में धातु-पाठ - कार ने 'न्याय' शब्द की निष्पत्ति की ओर संकेत किया है । जयादित्य वामन की काशिका - वृत्ति में अभ्रेष शब्द का अर्थ पदार्थों का अतिक्रमण न करने से लिया है अर्थात् जैसे प्राप्त हो, वैसा करना - पदार्थानामनपचारो यथाप्राप्तकरणं अभ्रेषः ( काशिका, 3.3.37 ) इसप्रकार न्याय-शास्त्र को काशिका - कार औचित्य - शास्त्र के रूप में भी व्याख्यायित करते हैं। संभवतः यही अर्थ आगे चलकर 'न्याय' शब्द के न्याय-विद्या के अर्थ में रूढ़ कराने में सन्निविष्ट प्रमुख कारक हो गया । भाव यह है कि प्राचीन मान्यता के अनुसार न्याय-शास्त्र उसी परिणाम को न्याय -पूर्ण घोषित करता है, जो उचित हो अर्थात् उसका जैसा रूप हो, उसके बारे में वैसा ही कथन किया गया हो । दूसरी ओर लोक में देहली - दीपक - न्याय घोड़ाक्षर - न्याय व काक-ताली - न्याय का भी उल्लेख मिलता हैं, वस्तु तत्त्व की सिद्धि जिन तर्क या तार्किक उपायों के द्वारा होती है, उन तार्किक उपायों को, तौर-तरीकों को बताने वाले शास्त्र को हमारे यहाँ 'न्याय' कहा गया है; यहाँ "हमारे यहाँ" से अभिप्राय भारतीय बौद्धिक चेतना से है । भाव यह है कि भारतीय बौद्धिक चेतना में संसार के सारे पदार्थों को प्रमुखतः दो कोटियों में रखा गया - 1. प्रत्यक्ष पदार्थ, 2. परोक्ष पदार्थ । जो सीधे सम्मुख हो, वह प्रत्यक्ष है, तब-फिर उसकी सिद्धि की बात बहुत मायने नहीं रखती । अब प्रश्न है कि
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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