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________________ परिशिष्ट-2 भव-भ्रमण अ ब स द अ ब भव्यत्व-भाव भावअ ब स भ आयु-नाम-कर्म के उदय का निमित्त पाकर जो जीव की पर्याय होती है, उसे भव कहते हैं । स्वरूप-संबोधन-परिशीलन उत्पत्ति के वारों का नाम भव है। उत्पत्ति होने के प्रथम - समय से लेकर अस्तित्व- समय तक की जो विशेष - अवस्था रहती है, उसे भव कहते हैं। देह को भव कहते हैं । - जै, सि. को, भा. 3, पृ. 218 जो जीव भविष्य में सम्यग्दर्शनादि स्वरूप से परिणत होने वाला है, उसे भव्य कहते हैं । जो अनादि पारिणामिक-भाव ( भव्यत्व) से मुक्ति प्राप्त करने के योग्य होते हैं, वे भव्य कहलाते हैं । - जै. लक्ष., भा. 3, पृ. 838 कर्म-विशेष के उपशम आदि के आश्रय से जो जीव की परिणति होती है उसे भाव कहा जाता है। चारित्र आदि रूप परिणाम का नाम भाव है। वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव कहते हैं । - जै. लक्ष. भा. 3, पृ. 841 भाव-कर्म अ ब भाव-मोक्ष अ ब अ ब कर्म-प्रकृति का ज्ञाता होकर जो जीव तद्विषयक उपयोग से सहित हो, उसे भाव - कर्म कहते हैं। पुद्गल - पिण्ड-रूप द्रव्य-कर्म की शक्ति को भाव-कर्म कहा जाता है। - जै. लक्ष, भा. 3, पृ. 841 भूतार्थ-दृष्टि / 247 समस्त कर्मों के क्षय को भाव-मोक्ष कहते हैं। ब जो आत्मा का परिणाम समस्त कर्मों के क्षय का कारण है, उसे भाव - मोक्ष कहा जाता है। - जै. लक्ष, भा. 3, पृ. 850 भेदाभेद-बोधि भेद अ जो कर्मोदय के कारण विविध गतियों में होते हैं, वे भूत कहलाते हैं, भूत यह प्राणी का पर्यायवाची शब्द है । श्रुत अतीत काल में था, इसलिए इसकी भूत संज्ञा है । - जै. सि. को. भा. 3, पृ. 245 समान स्निग्धता और समान रुक्षता का नाम भेद है। अभेद को प्राप्त हुए स्कन्ध जो वाह्य व अभ्यन्तर निमित्त के वश विभक्त होते हैं, इसका नाम भेद है। - जै. लक्ष, भा. 3, पृ. 869 अभेद-तिर्यक्- सामान्य अर्थात् द्रव्यों व गुणों की युगपद् वृत्ति ही अभेद है। जै. सि. कोश, भाग 3
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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